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ताओ उपविषद भाग ४
जब तुम किसी गरीब को इसलिए देते हो कि उसके पास नहीं है, तब तुम चाहोगे कि वह तुम्हें धन्यवाद दे। न्याय धन्यवाद मांगेगा। न्याय चाहेगा कि वह आभारी हो। लेकिन जब तुम इसलिए देते हो कि तुम्हारे पास इतना ज्यादा है कि तुम क्या करो अगर न दो, तब तुम उससे धन्यवाद न मांगोगे। बल्कि तुम उसे धन्यवाद दोगे कि तूने मुझे मेरे बोझ से हलका किया; तू राजी हुआ लेने को। क्योंकि तू न भी कर सकता था। देना आसान है, लेकिन अगर लेने वाला न ले तो! लेने वाला इनकार कर सकता है। और तब आपका सारा धन निर्धनता मालूम पड़ेगी। तूने स्वीकार किया, इसलिए मैं अनुगृहीत हूं।
इस मुल्क में हम साधु को भिक्षा देते हैं। और जब वह भिक्षा ले लेता है तो उसको दक्षिणा देते हैं। दक्षिणा इसलिए कि तूने भिक्षा स्वीकार की; वह धन्यवाद है। वह साधु धन्यवाद नहीं दे रहा है; धन्यवाद गृहस्थ दे रहा है कि तेरी कृपा, अनुग्रह कि तूने स्वीकार किया। भिक्षा स्वीकार कर ली, अब यह दक्षिणा है, यह धन्यवाद है। इनकार भी किया जा सकता था। तो साधु को हम इसलिए नहीं दे रहे हैं कि उसके पास नहीं है। हम इसलिए दे रहे हैं कि हमारे पास बहुत है और हम किसी को भागीदार बनाना चाहते हैं, कोई शेयर करे।
तो दया वाला व्यक्ति कर्म नहीं करता, और उसका कोई बाह्य प्रयोजन नहीं है। लेकिन न्याय वाला व्यक्ति । कर्म करता है, और ऐसा वह बाह्य प्रयोजन से करता है। और न्याय से भी नीचे गिरे हुए व्यक्ति का अस्तित्व है।
उसको लाओत्से कहता है, 'कर्मकांड वाला मनुष्य कर्म करता है, बाह्य प्रयोजन से करता है। और अगर प्रत्युत्तर नहीं पाता, तब वह अपनी आस्तीन चढ़ा कर दूसरों पर कर्मकांड लादने की ज्यादती भी करता है।'
ये तीन तरह के मनुष्य हैं। एक, धर्म को उपलब्ध, वह इसलिए करता है क्योंकि उसके पास इतना ज्यादा है कि वह बांटता है। दूसरा न्यायपूर्ण, वह इसलिए करता है कि कहीं जरूरत है, कोई बाह्य प्रयोजन है, जिसे पूरा करना है।
और तीसरा कर्मकांड वाला व्यक्ति; वह न केवल करता है बाह्य प्रयोजन से, लेकिन अगर आप न करने दें उसे तो वह जबरदस्ती भी करेगा, लेकिन करके रहेगा।
यह आपकी समझ में नहीं आएगा, इसमें हम बहुत से लोग ऐसा कर रहे हैं। आप कई बार अच्छा करने में बुरे सिद्ध होते हैं, क्योंकि आप अपने को इतना सही मान कर बैठे हुए हैं और आपका अहंकार इतना मजबूत हो गया है कि अगर आपको दूसरे को चोट और नुकसान भी पहुंचाना पड़े तो भी आप दया करके रहेंगे, आप दया नहीं छोड़ सकते। अब जैसे समझें। मुसलमानों ने हिंदुस्तान में न मालूम कितने मंदिर तोड़ डाले, कितनी मूर्तियां गिरा दी इन हजार सालों में। उन्होंने किस कारण ऐसा किया? वह तीसरी कोटि का कर्मकांड वाला व्यक्तित्व।
मुसलमान मानता है कि परमात्मा की कोई प्रतिमा नहीं है। इस मानने में जरा भी बुराई नहीं है। एकदम सही है बात। लेकिन जब पागल इस बात को मान लेता है कि परमात्मा की कोई प्रतिमा नहीं है तो वह समझाने तक ही राजी नहीं रहेगा, अगर आप न समझे तो आस्तीन चढ़ा लेगा। अगर आप फिर भी न माने तो आपको ठीक करने के लिए तलवार भी उठा लेगा वह। आपकी मूर्ति तोड़ कर रहेगा। अच्छा करने की आतुरता इतनी ज्यादा है कि अगर बुराई भी करना पड़े उस अच्छा करने के लिए तो भी वह करेगा।
इसलिए दुनिया में धर्म के नाम पर जितने पाप होते हैं, और किसी चीज के नाम पर नहीं होते। क्योंकि अच्छा करने का इतना भाव रहता है कि फिर बुराई बुराई नहीं दिखाई पड़ती और लगता है यह तो हम अच्छा करने के लिए कर रहे हैं। जब आप अपने छोटे बच्चे को चांटा मारते हैं तब आप यही कहते हैं कि तेरी भलाई के लिए हमें ऐसा करना पड़ रहा है। चांटा मार रहे हैं आप, और तेरी भलाई के लिए! और बड़ा मजा यह है कि हो सकता है, आप इसलिए मार रहे हों कि उस बच्चे ने और छोटे बच्चे को पीटा है। और आप कहते हैं कि हजार दफे कह दिया है कि मार-पीट नहीं होनी चाहिए। और पिटाई कर रहे हैं।
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