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ताओ उपनिषद भाग ४
सच बात यह है कि लाओत्से जैसे महर्षि जब भी होंगे तभी समाज उनसे भयभीत हो जाएगा; और समाज के ठेकेदार भी भयभीत हो जाएंगे, समाज के गुरु और नेता भी भयभीत हो जाएंगे। वे उनको पूजा भी कर सकते हैं, आदर भी दे सकते हैं, लेकिन बहुत शीघ्र उनकी शिक्षाओं को परिवर्तित कर लेंगे और उनकी शिक्षाओं में वे तत्व डाल देंगे जो तत्व आदमी को निर्मित करने की चेष्टा करता है, जो उसे बनाने की...भविष्य में आदर्श को रखता है जो, और जो एक धारणा लेकर चलता है, एक ढांचा, कि आदमी ऐसा हो तो ठीक है।
असल में, शिक्षक जी नहीं सकता, अगर वह आपको स्वीकार कर ले। नेता जी नहीं सकता, अगर वह कह दे कि आप स्वयं परमात्मा हैं। गुरु बच नहीं सकता, अगर वह शिष्य से कहे कि कहीं जाना नहीं, कहीं पहुंचना नहीं, कुछ पाना नहीं; तुम जो भी हो सकते हो, वह हो। यह सारा गोरखधंधा शिक्षक का, गुरु का, नेता का चल सकता है इसीलिए कि आपको भरोसा दिलाया जाए कि आप गलत हो, और ठीक करने का काम किसी और के हाथ में है। कुंजी किसी और के हाथ में है, जो आपको ठीक करेगा; आप गलत हो। अपराध की भावना पैदा करवाई जाए कि तुम गलत हो। जब आप कंपने लगें भय से कि मैं गलत हूं, तभी आप किसी के चरण में गिरेंगे और कहेंगे कि मुझे ठीक करो। और जब आप डर जाएंगे कि मैं गलत हूं, तभी कोई ठीक करने वाले को मौका है कि वह आप पर काम शुरू करे। अगर आप ठीक हो, तो सारा का सारा धंधा, जिसे हम धर्म समझ रहे हैं, वह गिर जाता है, टूट जाता है; उसके खंडहर रह जाते हैं।
तो धर्म का शोषण करने वालों के कुछ सूत्र हैं, वे उनके ट्रेड सीक्रेट हैं, वे उनके धंधे के बुनियादी सूत्र हैं। पहला यह कि आप जैसे हो, गलत हो; आप जो कर रहे हो, वह गलत है; आपकी वृत्तियां गलत हैं, आपके कर्म गलत हैं, आपका होना गलत है। यह जितने जोर से आपको समझाया जाए उतने ही जोर से धर्म का धंधा चल सकता है; क्योंकि तब ठीक करने वाले की जरूरत है। और मजे की बात यह है कि यह धंधा सनातन है; क्योंकि आप कभी ठीक हो नहीं सकते। आप ठीक इसलिए नहीं हो सकते कि आप गलत हो नहीं; इसलिए ठीक होने का कोई उपाय नहीं है। अगर कोई बीमारी होती तो इलाज हो सकता। लेकिन वहां कोई बीमारी नहीं है। बीमारी कल्पित है, इलाज कल्पित है। और धंधा लंबा है; उसका कोई अंत नहीं है।
आप उसी दिन ठीक हो जाओगे जिस दिन आपको पता चलेगा कि आप गलत हो ही नहीं। जिस क्षण आप अपने को स्वीकार कर लोगे कि मैं जैसा हूं, यही मेरी नियति है। इसे थोड़ा समझेंगे; बहुत कठिन है। इसलिए लाओत्से को पकड़ पाना कठिन है। जगत में जो भी गहन चिंतक हुए हैं, उनको पकड़ पाना कठिन है। इसे थोड़ा समझें। जिस क्षण भी आप यह समझ लोगे कि मैं जैसा हूं वैसा होना ही मेरी नियति है, इससे अन्यथा नहीं हो सकता, उसी क्षण सारा तनाव गिर जाता है, सारी अशांति गिर जाती है, सारा असंतोष, सारी दौड़, सब खो जाता है, सारी खोज बंद हो जाती है। जिस क्षण न कोई खोज रहती, न कोई दौड़ रहती, न कोई भविष्य रहता, जिस क्षण आप अपने को इतनी पूर्णता में स्वीकार कर लेते हैं कि इस क्षण के आगे जाने की कोई जरूरत नहीं रह जाती, उसी क्षण आपके सब पर्दे गिर जाते हैं, और आपके भीतर जो छिपा है वह प्रकट हो जाता है। दौड़ के कारण वे पर्दे नहीं गिर पाते, वासना के कारण वे पर्दे नहीं गिर पाते। मैं यह हो जाऊं, वह हो जाऊं, इस तनाव के कारण वे पर्दे निर्मित बने रहते हैं। ठीक होगा कहना कि यह दौड़, यह वासना कि मैं कुछ हो जाऊं, कुछ बन जाऊं, कहीं पहुंच जाऊं, यही पर्दा है; इसके कारण ही मैं खिंचा हुआ हूं और अपने स्वभाव के साथ एक नहीं हो पाता।
स्वभाव के साथ एक होने का सूत्र है स्वीकार। और कोई दयनीय स्वीकार नहीं, कोई असहाय स्वीकार नहीं, कोई मजबूरी का स्वीकार नहीं; सहज स्वीकार, कि मैं जो हूं, हूं। इसका यह अर्थ नहीं है कि आप बदल नहीं जाएंगे। सच तो यह है कि तभी आप बदलेंगे। आपके बदलने की कोशिश से आप नहीं बदल सकते। थोड़ा जटिल है। कौन