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________________ सहजता और सभ्यता में तालमेल 131 बुझे दीयों को दूसरों को जलाने की आकांक्षा पैदा होती है । क्यों? क्योंकि उस भांति, मैं बुझा हूं, यह बात भूलने की सुविधा हो जाती है। दूसरे बुझे हैं, उनको जलाना है; इस उपद्रव में वे भूल ही जाते हैं कि हम बुझे हैं। स्वयं के प्रति पहला प्रयोग; दूसरा गौण है। और जब मैं यह आपसे कह रहा हूं तो यह मैं दूसरे से भी कह रहा हूं। अगर प्रत्येक व्यक्ति अपनी चिंता कर ले तो इस पृथ्वी पर चिंता का कोई कारण नहीं है। फिर कौन चिंता को बचता है ? अगर प्रत्येक अपने हित को साध ले तो अहित की क्या जगह है ? फिर कौन बचता है ? इसे हम ऐसा समझें कि यहां प्रत्येक व्यक्ति कोशिश कर रहा हो कि दूसरा स्वस्थ हो, और खुद बीमार रहे; तो यह पूरी पृथ्वी बीमार हो जाएगी। यहां प्रत्येक व्यक्ति सोचे कि दूसरे को ज्ञान मिल जाए, मेरा अज्ञानी होना चल जागा; यह पूरी पृथ्वी अज्ञानी हो जाएगी। क्योंकि आप अपने साथ कुछ कर सकते हैं, क्योंकि वह निकटतम चेतना आपके । अगर वहां कुछ नहीं हो रहा है तो दूसरे की चेतना बहुत दूर है; वहां आप कुछ भी न कर सकेंगे। और भीतर आपके कुछ हो जाए तो उस होने में ही इतनी बड़ी ऊर्जा, इतनी बड़ी शक्ति पैदा होती है कि उसके परिणाम दूसरों में भी झलकने शुरू हो जाते हैं। इसलिए ताओ कहता है, ताओ विचार की जो मूल भित्ति है वह यह है कि आप अगर ठीक हो गए तो आप एक ठीक समाज और ठीक जगत की भित्ति बन जाते हैं। सारा ध्यान अपने पर लगा लें। यह सुन कर ऐसा लगता है कि मैं शायद आपको परार्थ से वंचित कर रहा हूं, परोपकार से हटा रहा हूं, सेवा के मार्ग से च्युत कर रहा हूं। लेकिन आप सेवा के मार्ग पर न हैं, न हो सकते हैं। न आप परोपकार कर सकते हैं; न करने का उपाय है। आप हैं ही नहीं अभी जिससे परोपकार हो सके। जिस चेतना से परोपकार हो सकता है वह आपके भीतर मौजूद नहीं है। तो आपका परोपकार सिर्फ उपद्रव कर सकता है, मिस्वीफ कर सकता है। आप किसी की गर्दन दबा सकते हैं परोपकार के नाम पर, और आप सेवा के नाम पर किसी की छाती पर बैठ सकते हैं। सेवकों को देखें ! वे पैर से शुरू करते हैं दबाना, और फिर गर्दन दबाते हैं। क्योंकि अंतिम लक्ष्य तो गर्दन दबाना है। लेकिन पैर से शुरू करना हमेशा सुगम होता है। और आप भी शांति से लेट जाते हैं-सेवक है, पैर दबा रहा है। और जब सेवक गर्दन दबाता है तब आप परेशान होते तब आप कहते हैं कि यह क्या कर रहे हो? लेकिन कोई पैर दबाना नहीं चाहता, गर्दन ही दबाना चाहते हैं। लेकिन पैर से शुरू करना पड़ता है। वह ठीक विधि है । इसलिए सेवक आखिर में मालिक बन जाते हैं । देखें हिंदुस्तान में, जिन-जिन ने स्वतंत्रता के दिनों में सेवा की, वे सब अब छाती पर बैठे हैं। अब वे कहते हैं। कि हमने सेवा की थी! हम राष्ट्र की आजादी के लिए लड़े! किसने तुमको कहा ? अब वे बदला मांगते हैं। अब वे कहते हैं: बदला चाहिए, प्रतिफल चाहिए, पुरस्कार चाहिए। लेकिन जब उन्होंने शुरू किया था तब उन्होंने पैर दाबने शुरू किया था। अब वे मुल्क की गर्दन को पकड़े हुए हैं। ध्यान रखिए, आपके गहरे मन में सेवा तो पैदा हो ही नहीं सकती, जब तक अहंकार है । जिस दिन अहंकार नहीं होगा उस दिन आप जो भी करेंगे वह सेवा होगी। सेवा करनी नहीं पड़ेगी; आपका सब करना सेवा बन जाएगा। पहले स्वयं को बदल लें, और आप एक बदलने वाली दुनिया के केंद्र बन जाते हैं। तीसरा प्रश्न : एक मित्र पूछते हैं, यदि भीतर के स्वर्ग और पृथ्वी का आलिंगन टूट जाने से कैंसर जैसी बीमारी पैदा हो सकती हूँ तो रामकृष्ण और रमण जैसे ज्ञानियों को कैंसर के रोग से क्यों मरना पड़ा? क्या उनके भीतर के स्वर्ग और पृथ्वी विच्छिन्न हो गए थे? उनको तो कैंसर मात्र को छोड़ कर और किसी भी रोग से मरना चाहिए था।
SR No.002374
Book TitleTao Upnishad Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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