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विश्व-शांति का सूत्रः सहजता व सरलता
नहीं कह कर हमारे अहंकार को रस आता है, क्योंकि लगता है हम कुछ हैं। इसलिए नास्तिकता अहंकार है, क्योंकि वह आखिरी नहीं है। ईश्वर नहीं है, यह कह कर आप परम अहंकार को पैदा करते हैं। आस्तिकता का अर्थ है समर्पण, आस्तिकता का अर्थ है हां पूरे अस्तित्व को, एक स्वीकार! नास्तिकता का अर्थ है नहीं, समर्पण बिलकुल नहीं; संघर्ष। नास्तिक कोई दार्शनिक आधार से नहीं होता, क्योंकि नास्तिकता के लिए कोई दार्शनिक आधार नहीं है। नास्तिक आदमी होता है मनोवैज्ञानिक रोग के कारण। क्योंकि अगर ईश्वर है तो आप मिट गए। इसको कभी आपने सोचा? चाहे आप मंदिर जाएं या न जाएं, अगर ईश्वर है तो आप मिट गए। क्योंकि फिर सब कुछ उसके द्वारा हो रहा है; और आपके करने, न करने का कोई मूल्य नहीं रहा।
नीत्शे ने लिखा है कि ईश्वर नहीं हो सकता; क्योंकि मैं हूं।
ठीक है। ईश्वर कैसे हो सकता है; मैं हूं। 'मैं' ईश्वर को नहीं मान सकता। क्योंकि ईश्वर मैं का सबसे बड़ा खंडन हो जाएगा। और ईश्वर है तो फिर मैं नहीं बच सकता, क्योंकि उसका होना मैं का विसर्जन है।
आप अपने जीवन से नहीं को कम करें तो आपकी नास्तिकता कम होगी। मैं नहीं कहता आप मंदिर जाएं। मैं आपको कहता हूं, अपने जीवन से नहीं को कम करें; और जहां तक बन सके, जहां तक हो सके, हां का उपयोग करें। आप अगर थोड़ा सा समझ का प्रयोग करेंगे और थोड़ा होश रखेंगे तो दिन में आप पाएंगे कि सौ में से निन्यानबे मौकों पर नहीं से बचा जा सकता है। उसी मात्रा में आपकी आस्तिकता सघन होने लगेगी। उस आखिरी हां कहने के पहले छोटी-छोटी हां कहना सीखना पड़ेगा। लोग सीधा कहते हैं, परमात्मा है। वह नहीं हो सकता, क्योंकि चौबीस घंटे वे हर चीज को नहीं कह रहे हैं। नहीं कह कर वे मैं को मजबूत कर रहे हैं, और फिर कहते हैं, परमात्मा है। इस मैं की मजबूती में परमात्मा से कोई संबंध नहीं हो सकता। जब कल सुबह उठ कर आपको पहले ही मौके पर नहीं कहने का खयाल आए तो आप सोचना कि इसकी जरूरत है? इसके बिना नहीं चल सकेगा? ।
और छोटे-छोटे बच्चे भी जानते हैं कि आपकी नहीं का कोई मूल्य नहीं है। वे पैर पटक कर वहीं खड़े रहेंगे कि जाऊं? खेलने जाऊं? और वे जानते हैं कि तीन दफे या चार दफे कहने की जरूरत है, और नहीं जो है वह गिर जाएगी और हां में बदल जाएगी। तो आप छोटे बच्चों को भी व्यर्थ का जाल सिखा रहे हैं। भरोसा उनका सब छुड़ाए दे रहे हैं आप। वे आप पर भरोसा नहीं कर सकते, क्योंकि आपकी बात का कोई मूल्य नहीं है। आप नहीं कहते हैं, और क्षण भर बाद आप हां कह देते हैं। बेहतर था, आप पहले ही हां कह देते।
जुंग ने अपने संस्मरणों में लिखा है कि अगर मां-बाप, जहां हां कहना ही पड़ता हो वहां पहले से ही हां कह दें, तो बच्चों का भरोसा उन पर रहे। और जहां न कहना आखिरी बात हो, जहां कोई उपाय ही न हो, वहीं नहीं कहें। लेकिन जब एक दफा नहीं कह दें तो चाहे कुछ भी हो जाए, उसको फिर हां में न बदलें। क्योंकि नहीं को हां में बदलने का मतलब है कि आपका कोई मूल्य नहीं है।
जुंग ने लिखा है कि ऐसी बात तो बच्चे से कहना ही नहीं चाहिए जिसको वह नहीं कर दे। जैसे अब रो रहा है बच्चा, और आप उससे कहते हैं, मत रोओ। अगर वह रोता रहेगा तो आप करेंगे क्या? मार सकते हैं। वह और ज्यादा रोएगा। एक बार बच्चे को यह पता चल गया कि आपकी नहीं ठुकराई जा सकती है-आप कहते हैं मत रोओ, वह रो रहा है और आप चिल्लाए जा रहे हैं, मत रोओ, वह रो रहा है तो उसको पता चल गया कि आपका कोई भी मूल्य नहीं है। आपकी बात का भी कोई मूल्य नहीं है। जुंग ने कहा है कि वही बात कहो जिसको तुम करवा सकते हो; वह बात कहो ही मत जो तुम्हारे वश के बाहर है, कर ही नहीं सकते तुम। रोना कैसे रोकोगे?
हम जो भी कर रहे हैं अपने आस-पास उसमें हम नहीं पर बड़ा बल देते हैं। कभी खयाल में नहीं आता कि क्यों देते हैं। क्योंकि नहीं से हमारा मैं भरता है, और नहीं से दूसरे का मैं टूटता है। यही नहीं जब विराट रूप ले लेती