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शक्ति पर भद्रता की विजय होती है
वहां करने से कैसे आनंद मिलेगा? एक गेंद को इस तरफ से उस तरफ नेट के करने से आनंद कैसे मिल सकता है? लेकिन कोशिश करें, कहते हैं, शायद मिले। तो आप परेशान हो जाएंगे, दुख पाएंगे। और बाद में आप कहेंगे कि गलत कहा, आनंद नहीं मिलता।
खेल से आनंद मिलता है, इसमें कार्य-कारण का संबंध नहीं है, कि आप खेलेंगे तो आनंद मिलेगा, कि आनंद पाने के लिए आप खेलें तो आनंद मिल जाएगा। नहीं, आप आनंद को तो सोचें ही मत, आप सिर्फ खेलें। आनंद की तो बात ही मत उठाएं। आनंद मिलेगा, यह भी ध्यान मत रखें। आनंद चाहिए, इसकी भी बात छोड़ दें। आनंद को भूल ही जाएं, सिर्फ खेलें। तो आनंद मिलेगा। क्योंकि आनंद खेल के पीछे छाया की तरह आता है। कार्य की तरह नहीं, छाया की तरह आता है। लेकिन छाया ऐसी चीज नहीं है कि आप झपट्टा मार दें। अगर आप चुपचाप खेलते रहें तो छाया चारों तरफ घिर जाएगी; आप आनंदित हो उठेंगे।
जीवन में जो लोग भी इस बात को नहीं समझ पाते, वे बड़ी कठिनाई में पड़ते हैं। कहीं संगीत चल रहा है। और कोई आपको कहता है संगीत का प्रेमी, कि आओ, बहुत आनंद है। अब आप वहां बैठे हैं रीढ़ को, कुंडलिनी को बिलकुल जगाए हुए-आनंद कहां है? यह आदमी शोरगुल मचा रहा है, इसमें आनंद कहां है? कब मिलेगा आनंद? कितनी देर और लगेगी? आप बार-बार घड़ी देख रहे हैं कि अभी तक नहीं मिला! अभी तक नहीं मिला! आपको कभी भी नहीं मिलेगा। क्योंकि जो आप कर रहे हैं उससे आपका संगीत का संबंध ही नहीं बन पा रहा है।
__ अगर आप सोचते हैं कि भद्रता से विजय मिलेगी, तो भद्रता ही नहीं मिलेगी, विजय तो बहुत दूर है। क्योंकि वह विजय की आकांक्षा ही तो भद्रता का अभाव है। इसलिए इन सूत्रों को आप कार्य-कारण के सूत्र मत समझना। इन सूत्रों का अर्थ परिणाम का है। अगर कोई व्यक्ति भद्र है तो विजय उसके पीछे छाया की तरह चलती है। लेकिन जो व्यक्ति विजय के लिए सोचता है उसने तो विजय को आगे ले लिया, भद्रता को पीछे कर दिया। उसके पीछे फिर विजय नहीं चलती।
सुना है मैंने कि स्वामी राम के पास एक आदमी आया करता था। और राम उससे कहते थे कि जब मेरा एक घर था और मैं एक घर को पकड़े हुए था तो वह घर भी बचाना मुझे मुश्किल हो गया था। और अब मैंने सब घर छोड़ दिए तो सारी दुनिया के घर मेरे हो गए हैं। और जब मैं धन को पकड़ता था कौड़ी-कौड़ी तो कौड़ी भी हाथ में नहीं टिकती थी। और जब मैंने धन की पकड़ छोड़ दी तो सारी दुनिया की संपदा मेरी हो गई।
उस आदमी ने कहा, मैं भी कोशिश करूंगा। उसने सोचा कि अगर ऐसा मामला है तो यह पहले ही क्यों नहीं बताया गुरुजनों ने?
राम उसे देख कर डर गए होंगे। उन्होंने कहा, ठहर! तू कोशिश में मत पड़ जाना, नहीं तो तू मुझ पर मुकदमा करेगा। अगर तूने धन छोड़ा इस आशा में कि सारी दुनिया का धन हो जाए तो तेरे हाथ का धन भी चला जाएगा, दुनिया का तो मिलने वाला नहीं। उस आदमी ने कहा, और अभी आप कह रहे थे कि जब मैंने छोड़ दिया क्षुद्र तो विराट मेरा हो गया! तो मैं भी कोशिश करके देखना चाहता हूं।
हम सब भी यही करते हैं। लाओत्से जैसे परम चैतन्य व्यक्तियों के वचन जब हम पढ़ते हैं तो हमें बड़ी कठिनाई यही हो जाती है कि हम सोचते हैं कि बिलकुल ठीक, यह तो हम भी चाहते हैं कि विजय मिले, और लाओत्से सूत्र बता रहा है कि भद्र को मिलती है, तो हम भद्र हो जाएं।
एक तो चेष्टा से भद्र आप हुए तो वह झूठ होगा। वह हार्दिक न होगा, औपचारिक होगा। और विजय की आकांक्षा से कोई भद्र कैसे हो सकता है? कोई विनम्र कैसे हो सकता है? कि अगर आप विनम्र हो जाएं तो सब जगह आदर मिलेगा। तो आदर पाने की आकांक्षा से कोई विनम्र कैसे होगा? विनम्र तो आप बिना किसी आकांक्षा के ही हो