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ताओ उपनिषद भाग ३
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अगर इस तरह देखेंगे तो खयाल आएगा कि सभ्यता का अर्थ ही क्या होता है? सभ्यता का अर्थ ही होता है, प्रेम का गहन और विस्तीर्ण हो जाना।
निश्चित ही वे लोग सभ्य थे और उनका हृदय भी सभ्य था । और केवल मस्तिष्क की सभ्यता होती तो आप जो कह रहे हैं, वही उन्होंने भी सोचा होता कि क्या फायदा है ? क्या फायदा है? सच तो यह है कि बाप की हड्डी - पसली निकाल कर बेच देना चाहिए। कुछ पैसे मिल सकते हैं, वह फायदे की बात है। शरीर को व्यर्थ जला आते हैं, उसका कोई मतलब भी तो नहीं है। सब बेचा जा सकता है सामान। लेकिन वह आप न कर पाएंगे; यह जानते हुए भी कि बाप की आत्मा को अब इससे कुछ नुकसान होने वाला नहीं है। जो शरीर छूट गया, वह छूट गया। अब इसको जला दे रहे हैं, इससे तो बेहतर है बाजार में बेच दें। अगर बुद्धि ही पास में होगी तो यही उत्तर ठीक मालूम पड़ेगा। लेकिन फिर भी आप बेचना न चाहेंगे। भीतर हृदय में कहीं चोट लगेगी।
यह शरीर ही बचा है अब, और मिट्टी है, यह बात साफ है। और इस मिट्टी के साथ अब कुछ पैसे और हीरे-जवाहरात रख देना असभ्यता का लक्षण नहीं है; हृदय भी एक ऊंचाई पर रहा होगा, इसकी खबर है।
पर बड़ी कठिनाई होती है; क्योंकि जो सभ्यताएं खो जाती हैं, उनके बाबत हम कुछ भी सोचते हैं, वह हमारा ही विचार होता है। पश्चिम के जिन लोगों ने इन ममीज को खोदा है और इनमें सामान पाया है, उन्होंने यही सोचा कि मरा हुआ आदमी इनका उपयोग कर सकेगा, इसलिए ये चीजें रखी गई हैं।
ये चीजें इसलिए नहीं रखी गई हैं। प्रेम मरे हुए को भी मरा हुआ नहीं मान पाता है। और जहां प्रेम नहीं है, वहां जिंदा आदमी भी मरा हुआ ही है। एक छोटी सी घटना कहूं, उससे खयाल में आ सके।
रामकृष्ण की मृत्यु हुई। तो नियमानुसार उनकी पत्नी शारदा को चूड़ियां तोड़ लेनी चाहिए। पास-पड़ोस के लोग इकट्ठे हो गए और उन्होंने कहा, चूड़ियां तोड़ डालो। और शारदा चूड़ियां तोड़ने जाती ही थी कि तभी वह खिलखिला कर हंसने लगी। लोग समझे कि वह पागल हो गई है। और उसने चूड़ियां तोड़ने से इनकार कर दिया। उसने कहा कि जैसे ही मैं चूड़ियां तोड़ने जा रही थी, मुझे रामकृष्ण का वचन याद आया। उन्होंने कहा है, मैं तो कभी भी नहीं मरूंगा । तो उनका शरीर भला छूट गया हो, लेकिन वे मरे नहीं हैं; इसलिए मैं विधवा नहीं हो सकती। यह भारत में पहला ही मौका है, पूरे इतिहास में, जब किसी विधवा ने पति के मरने पर विधवा होने से इनकार कर दिया। अगर उनकी आत्मा है, तो मैं विधवा नहीं हूं; इसलिए ये चूड़ियां मैं पहने रहूंगी।
और शारदा फिर सधवा के वस्त्र ही पहने रही। रोज जितने समय वह रामकृष्ण की बैठक में जाती थी, उनसे कहने कि चलें, भोजन तैयार है। अब वहां कोई भी नहीं था; लेकिन शारदा रोज जाती थी। लोग वहां बैठ कर शारदा की बात सुन कर रोते थे। और शारदा उस जगह जाती जहां रामकृष्ण बैठते थे और उनसे कहती कि परमहंस देव, चलें, भोजन तैयार हो गया। वह भोजन तैयार करती, वह थाली लगाती, वह इस भांति लौटती जैसे रामकृष्ण उसके साथ वापस लौट रहे हों, वह उन्हें बिठाती, वह पंखा झलती। यह वर्षों चलता रहा। इसमें कभी भूल-चूक न हुई । फिर वह उन्हें लिटा देती, फिर वह उन्हें सुला देती, फिर वह मसहरी डाल देती। यह पूरी जिंदगी चलता रहा।
हम निश्चित कहेंगे, यह औरत पागल है। और हमारे हिसाब में यह बात कहीं भी न आएगी। लेकिन थोड़ा हृदय से सोचें, तो यह भी संभावना है कि शारदा के लिए रामकृष्ण कभी मरे ही नहीं। और शारदा के हृदय ने कभी स्वीकार ही नहीं किया, किसी तल पर, कि उनकी मृत्यु हो गई है। हमारे लिए तो वह पागल है, लेकिन अगर थोड़ा सहानुभूति से सोचें, तो हो सकता है कि हम ही नासमझ हों और वह पागल न हो।
फिर एक बात तय है कि शारदा कभी दुखी नहीं हुई, वह सदा आनंदित रही। अगर पागलपन में इतना आनंद है, तो आपकी बुद्धिमत्ता छोड़ देने जैसी है। क्योंकि आपकी बुद्धिमत्ता सिवाय दुख के आपको कुछ नहीं दे रही ।