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ताओ उपनिषद भाग ३
लाओत्से कहता है, 'वह वही है, जो रक्तपात में रस लेता है; वही सौंदर्य देखता है विजय में। और जिसे हत्या में रस है, वह संसार पर शासन करने की अपनी महत्वाकांक्षा में सफल नहीं होगा।'
क्यों नहीं होगा महत्वाकांक्षा में सफल? क्योंकि जो हिंसा से जीतता है, वह हिंसा से भयभीत रहता है। जो हिंसा से जीतता है, वह कभी भय के बाहर नहीं जा सकता। इसलिए बड़े हिंसक बड़े भयभीत रहते हैं। हिटलर या स्टैलिन से ज्यादा भयभीत आदमी खोजने मुश्किल हैं। जो थर-थर कंपते रहते हैं। स्टैलिन की लड़की श्वेतलाना ने अपने संस्मरणों में लिखा है कि मेरे पिता से ज्यादा भयभीत आदमी खोजना मुश्किल है। इतनी हिंसा की है, तो इतने लोगों को हिंसा करने के लिए उत्सुक भी कर दिया। जितने लोगों को दबाया है, उनको भी उत्सुक कर दिया है कि वे बदला लें, प्रतिकार लें, और तुम्हें दबा दें।
और जिसको हम दबाते हैं, वह हमसे भयभीत भला हो जाए, वह कभी मानता नहीं कि हम जीत गए हैं और वह हार गया। वह सदा इतना ही मानता है कि एक टेंपरेरी फेज, एक अस्थायी बात है कि तुम अभी ऊपर आ गए; थोड़ा मौका दो, थोड़ा समय आए, हम भी ऊपर आ जाएंगे। हारा हुआ कभी नहीं मानता कि मेरी हार शाश्वत हो गई। वह मानता है, क्षण की बात है, संयोग की बात है। जीता हुआ भी मान नहीं सकता कि मेरी जीत शाश्वत हो गई। क्योंकि वह भी जानता है, जो नीचे है, वह कल ऊपर आ सकता है।
एक बात विचारणीय है : भय से कोई भी कभी विजित नहीं होता, कोई कभी भय से हराया नहीं जा सकता। लेकिन हम सब भय पर भरोसा करते हैं। बड़े युद्धखोर करते हैं, ऐसा नहीं, हम भी। हम भी मानते हैं ऐसा।
उन्नीस सौ चालीस में रूजवेल्ट ने एक वक्तव्य में कहा कि मेरा देश, मैं चाहता हूं, उस स्थिति में पहुंचे, जहां कोई भी व्यक्ति भयभीत न हो, किसी को भी भय की परतंत्रता न रहे, सब स्वतंत्र हों अभय होने को। और दूसरी बात कही कि सभी स्वतंत्र हों पूजा करने को, प्रार्थना करने को।
एक व्यक्ति ने, एक बहुत विचारशील व्यक्ति ने, रूजवेल्ट को एक पत्र लिखा और उस पत्र में लिखा कि दोनों बातें विरोधी हैं; आप जरा फिर से सोचें। क्योंकि ईसाई प्रार्थना में वचन ही यही आता है कि हे प्रभु, ऐसा कभी दिन न आए जब मैं तुझसे भयभीत न होऊं; तेरे प्रति मेरा प्रेम बना रहे और तुझसे मैं सदा डरता रहूं।
उस आदमी ने ठीक पत्र लिखा। रूजवेल्ट को मुश्किल पड़ गई। उसने ठीक लिखा कि प्रार्थना में तो भय की ही प्रार्थना है। और अगर आप चाहते हैं लोग भय से मुक्त हो जाएं, तो लोग प्रार्थना से मुक्त हो जाएंगे; जरा खयाल कर लें। और अगर आप चाहते हैं लोग प्रार्थना को स्वतंत्र हों, तो फिर उनको भयभीत रहने ही देना पड़ेगा। इसमें थोड़ी सचाई है। अंग्रेजी में गॉड-फियरिंग धार्मिक आदमी को कहते हैं; ईश्वर-भीरु हम भी कहते हैं।
तुलसीदास ने कहा है, भय बिन होई न प्रीति, बिना भय के प्रीति नहीं हो सकती।
यह थोड़ी दूर तक सही बात मालूम पड़ती है; क्योंकि हमारा सब प्रेम भय पर ही खड़ा होता है। बाप बेटे को डराता है, तो बेटा बाप को प्रेम करता है। और जब बेटा बाप को डराने लगता है-मौका तो आ ही जाएगा, थोड़े ज्यादा दिन नहीं चलेंगे-तब बाप कहता है कि अब तू मुझे प्रेम नहीं करता। वह पहले भी प्रेम नहीं करता था। आप सिर्फ डरा रहे थे, इसलिए प्रेम मालूम पड़ रहा था। अब वह आपको डराने लगा, तो अब कैसे प्रेम मालूम पड़े?
इसलिए हर बाप को अनुभव होता है कि अब बेटा प्रेम नहीं करता। वह कब करता था, यह तो बताइए। जब डंडा आपके हाथ में था, तब आपको लगता था वह प्रेम करता है। ज्यादा देर डंडा आपके हाथ में नहीं रहेगा। जिंदगी सभी को मौका देती है; डंडा उसके हाथ में आएगा। तब फिर वह बूढ़े बाप को डंडा बताएगा; अब वह चाहता है कि आप उससे प्रेम करो। पहले वह आपसे प्रेम करता था, अब आप उससे प्रेम करो। आखिर वही कब तक करे, आप भी तो करो।
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