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विजयोत्सव ऐसे मना जैसे कि वह अंत्येष्टि हो
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लेकिन पूर्ण अहिंसा के लिए नहीं । आदमी तो हिंसक रहेगा ही। इसलिए हम उसकी हिंसा को सब्लीमेट कर सकते हैं, उसकी हिंसा को हम थोड़ा सा ऊर्ध्वगामी कर सकते हैं। कई तरह के ऊर्ध्वगमन हैं हिंसा के, वह भी खयाल में ले लें, तो आपको पता चले कि वहां भी आप हिंसा ही कर रहे हैं।
दो पहलवान कुश्ती लड़ रहे हैं; आप देखने चले जा रहे हैं। हजारों, लाखों लोग इकट्ठे होते हैं पहलवान को कुश्ती लड़ते देखने। आप क्या देखने जा रहे हैं? आपको क्या रस मिल रहा होगा ? एक आदमी पिटेगा, कुटेगा, गिरेगा; एक गिराएगा, दूसरा उसकी छाती पर सवार होगा; आपको क्या पुलक होती है ? स्टुपिड, बिलकुल मूढ़तापूर्ण है। आप किसलिए पहुंच गए हैं देखने ?
मगर लोगों को देखें, जब कुश्ती हो रही हो, तो वे अपनी कुर्सी पर बैठ नहीं सकते; इतनी शक्ति से भर जाते हैं कि उठ उठ आते हैं। सांस उनकी तेज चलने लगती है, रीढ़ सीधी हो जाती है; जैसे उनके प्राण अटके हैं किसी बड़ी घटना में । हो क्या रहा है? आपके भीतर जो हिंसा की वृत्ति है, उसकी केथार्सिस हो रही है, वह बाहर निकल रही है। आप मजा ले रहे हैं। असल में, अब आप इतने बलशाली भी नहीं हैं कि खुद ही हिंसा कर लें, वह आप नौकरों से करवा रहे हैं। वे किराए के आदमी कर रहे हैं वह काम |
अब हम किसी भी काम को करने में खुद समर्थ नहीं हैं। अगर आपको प्रेम करना है तो आप खुद नहीं कर सकते। तो नाटक या फिल्म में दूसरों को प्रेम करते देखते हैं। आपके नौकर प्रेम कर रहे हैं, आप देख रहे हैं। बड़ा हलकापन लगता है; तीन घंटे नासमझियां देख कर जब आप लौटते हैं, तो मन हलका हो जाता है। क्यों ?
यह सब आप करना चाहते थे। आपके भीतर ये वेग हैं। जब फिल्म के पर्दे पर पुलिस डाकू का पीछा कर रही हो, और सनसनीखेज हो जाए स्थिति, और रोआं-रोआं कंपने लगे, पहाड़ी रास्ते हों, भागती हुई कारें हों और ऐसा लगे कि अब दुर्घटना, अब दुर्घटना, तब आप इस हालत में हो जाते हैं जैसे कार के भीतर हैं। वह तो अच्छा है कि फिल्म के हाल में अंधेरा रहता है, कोई किसी को देख नहीं सकता। एकदम से उजाला हो जाए, तो आप शर्मिंदा हो जाएंगे कि क्या कर रहे थे ! इतने जोश में आप क्यों आ गए थे ?
आपके भीतर भी कुछ हो रहा था । वह आप हलके हो रहे थे। आप कुश्ती देख रहे हैं, दंगा-फसाद देख रहे हैं, युद्ध देख रहे हैं; आपके भीतर कुछ हलका हो रहा है। नौकरों से काम लिया जा रहा है; आप जो नहीं कर सकते हैं, वह अब धंधेबाज लोग उस काम को कर रहे हैं। आप नाच नहीं सकते, कोई नाच रहा है; आप गा नहीं सकते, कोई गा रहा है; आप दौड़ नहीं सकते, कोई दौड़ की प्रतियोगिता कर रहा है; आप लड़ नहीं सकते, कोई लड़ रहा है। हमने अपनी हिंसा को निकास के रास्ते बना रखे हैं।
और सारी दुनिया में इस तरह के उपाय समाजों ने छोड़े हैं- छुट्टी के दिन। जैसे होली; वह छुट्टी का दिन है। उस दिन जो-जो नालायकी आपको करनी हो, वह आप मजे से कर सकते हैं । उसको कोई एतराज नहीं लेगा। लेकिन आप कर रहे हैं वह, यह आपने कभी सोचा कि क्यों कर रहे हैं? आप साल भर ही करना चाहते, लेकिन छुट्टी नहीं थी। यह तो दिल आपका था साल ही भर करने का — गाली देने का, गंदगी फेंकने का, दूसरे को परेशान करने का - यह तो आपका मन सदा से था। समझदार समाज आपको साल में कभी-कभी छुट्टी देता है, ताकि आपका कचरा निकल जाए, थोड़ी राहत मिले, थोड़ी राहत मिले।
सारी दुनिया में सभी समाज, विशेषकर सभ्य समाज । असभ्य समाज नहीं करते ऐसी व्यवस्था; क्योंकि कोई जरूरत नहीं है। साल भर ही वे यह करते हैं। इसलिए कोई उनको होली की जरूरत नहीं है; साल भर होली है। जितना सभ्य समाज होगा, उतना उसे रास्ता बनाना पड़ेगा निकास का। फिर हम उसको हलके मन से लेंगे; फिर आप उसमें एतराज नहीं उठाएंगे। क्योंकि, आपने कभी सोचा ही नहीं कि आपकी यह जरूरत है; मानसिक जरूरत है।