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विजयोत्सव ऐसे मना जैसे कि वह अंत्येष्टि छो
शवीत्जर ने, एक बहुत विचारशील व्यक्ति ने, भारत को मृत्युवादी कहा है। उसकी बात में थोड़ी सचाई है, थोड़ी। जिस अर्थ में वह कहना चाहता है, वह तो ठीक नहीं है। लेकिन थोड़ी सचाई है। क्योंकि भारत के जो भी बड़े मनीषी हैं, वे जीवेषणा से भरे हुए नहीं हैं। वे कहते हैं, जीवेषणा हिंसा पैदा करती है।
जब मैं बहुत जोर से जीना चाहता हूं, तो मैं दूसरे की मृत्यु का कारण बन जाता हूं। और दूसरे भी इतने ही जोर से जीना चाहते हैं, वे मेरी मृत्यु का कारण बन जाते हैं। जी कोई भी नहीं पाता; हम एक-दूसरे की मृत्यु के कारण बन जाते हैं। हम एक-दूसरे के जीवन को काटते हैं; जी कोई भी नहीं पाता।।
तो बुद्ध या महावीर कहते हैं, ऐसी जीवेषणा का क्या मूल्य, जो दूसरे के जीवन का घात बनती हो! अगर यही जीवन है, जिसमें दूसरे की हिंसा अनिवार्य है, तो इस जीवन को छोड़ देने जैसा है।
भारत की आकांक्षा रही है। ऐसे जीवन की तलाश, जो दूसरे के जीवन के विरोध में न हो। उसको हमने परम जीवन कहा है। एक ऐसे सत्व की खोज, एक ऐसी स्थिति की खोज, जहां मेरा होना किसी के होने में बाधा न बनता हो। और अगर मेरा होना किसी के होने में बाधा बनता है, तो भारत इस होने को दो कौड़ी का मानता रहा है। फिर इसका कोई मूल्य नहीं है। फिर ऐसे होने को करके भी, लेकर भी क्या करेंगे? ऐसे जीवन को क्या करेंगे, जो लाश पर ही खड़ा होता हो दूसरे की? जो दूसरे को मिटा कर ही बनता हो, ऐसी बनावट के भारत पक्ष में नहीं है।
तो शवीत्जर ठीक कहता है, उसकी आलोचना में सचाई है कि भारत मृत्युवादी है। सचाई इतनी ही है कि भारत जीवेषणावादी नहीं है। लेकिन शब्द अनुचित है, मृत्युवादी कहना ठीक नहीं। क्योंकि जो जीवन को ही नहीं मानता, वह मृत्यु को क्या मानेगा? जिसका जीवन में ही रस नहीं है, उसका मृत्यु में रस कैसे हो सकता है?
तो भारत वस्तुतः न तो जीवेषणावादी है और न मृत्यु-एषणावादी है। भारत तो मानता है, ये दोनों एषणाएं साथ-साथ हैं; इनमें से एक का त्याग नहीं हो सकता। एक सिक्के का मैं एक पहलू त्यागना चाहूं, यह कैसे हो सकता है ? पूरा सिक्का फेंक सकता हूं, या पूरा सिक्का बचा सकता हूं। लेकिन सोचूं कि एक पहलू बच जाए और एक फेंक दं, तो मैं पागल हूं। तो भारत कहता है, या तो दोनों बचते हैं, जीवन की आकांक्षा के साथ दूसरे की मृत्यु की आकांक्षा भी बच जाती है, अपनी मृत्यु की आकांक्षा भी बच जाती है। और अगर फेंकना है जीवेषणा, तो मृत्यु-एषणा भी फिंक जाती है; वह उसी का दूसरा पहलू है।
इसलिए भारत मुक्तिवादी है, मृत्युवादी नहीं। मुक्ति का अर्थ है : जीवन और मृत्यु दोनों के पार। जीवन का अर्थ है मृत्यु के विरोध में, मृत्यु का अर्थ है जीवन के विरोध में; मुक्ति का अर्थ है दोनों के पार। किसी के विरोध में नहीं, किसी के पक्ष में नहीं; दोनों से अलग। इसलिए भारत का सारा चिंतन मोक्ष के इर्द-गिर्द घूमता रहा है। यह मोक्ष क्या है ? यह मोक्ष ऐसे होने की अवस्था है, जहां मेरा होना किसी के होने का शोषण नहीं है।
इसे थोड़ा ठीक से समझ लें। जहां मैं होता हूं, इससे कोई मिटता नहीं, कोई भी नहीं मिटता; मेरे होने से किसी की हिंसा नहीं होती; मेरा होना शुद्धतम, निर्दोष और पवित्र हो जाता है; उसमें कोई रेखा हिंसा की नहीं रह जाती। अगर ऐसा कोई जीवन है, तो भारत कहता है, ऐसा जीवन ही पाने योग्य है। इस पृथ्वी पर तो हम जो जीवन देखते हैं, वह जीवन किसी न किसी रूप में हिंसा पर खड़ा है। इसलिए भारत को इस पृथ्वी की आकांक्षा ही न रही। हमने जो श्रेष्ठतम मनीषी पैदा किए, वे पृथ्वी के पार जाने की उद्दाम अभीप्सा से भरे हुए लोग हैं। वे कहते हैं, अगर यही जीवन है तो जीवन जीने योग्य नहीं है। एक और जीवन हो सकता है क्या?
शरीर के रहते तो उस जीवन की संभावना मुश्किल मालूम पड़ती है। क्योंकि शरीर का होना तो हिंसा पर निर्भर है; चाहे भोजन करें हम, चाहे श्वास लें, चाहे पानी पीएं, चाहे एक कदम रखें, लेटें, उठे, बैठे, हिंसा चलती है। शरीर हिंसा ही के आधार पर है। लेकिन चेतना, भीतर शरीर के जो होश, जो जागरूकता है, जो बोध है, उसके
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