SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 381
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ युद्ध अनिवार्य हो तो शांत प्रतिरोध की बीति है उमर ने कहा, मेरा कोई क्रोध न था, एक शांत प्रतिरोध था। तुम पागल थे लड़ने को, कोई और उपाय नहीं था, तो मैं लड़ रहा था। लेकिन लड़ने में कोई रस नहीं था। आज व्यक्तिगत रस हो गया लड़ने में। तुमने जब थूका, तो क्षण भर को मुझे लगा कि भोंक दो! लेकिन तब मैं भोंक रहा था-उमर। दस साल सब विलीन हो गए। तुम बुरे आदमी हो, इसलिए मारना; तुम नुकसान कर रहे हो लोगों का, इसलिए मारना; यह सब सवाल न रहा। तुमने मेरे मुंह पर थूका, सारी बात इस पर अटक गई, इस छोटे से थूक के दाग पर। तो फिर रुक जाना जरूरी हो गया। क्योंकि कसम है मेरी कि शांत लड़ सकू तो ही लडूंगा। क्योंकि अगर अशांत होकर लड़ रहा हूं तो फायदा ही क्या है? दो बुरे आदमियों के लड़ने से हल भी क्या है? कोई जीतेगा, हर हालत में बुराई जीतेगी। फिर मेरी उत्सुकता नहीं है। लाओत्से कहता है, 'शांत प्रतिरोध ही सर्वश्रेष्ठ नीति है।' अगर ऐसी स्थिति आ जाए कि युद्ध में उतरना पड़े, सैनिक बनना पड़े, तलवार उठानी पड़े, तो भी वह जो धर्मिष्ठ व्यक्ति है, वह निरंतर अव्यक्तिगत, निरंतर शांत, निरंतर शून्य, निरंतर अपनी तरफ से अलिप्त, लड़ने में बिना रस लिए, युद्ध में उतरेगा। यही कोशिश कृष्ण की अर्जुन के लिए है कि वह ऐसा हो जाए–संन्यासी, सैनिक एक साथ। तो ही सैनिक का जो विष है, जो जहर है, वह विलीन हो जाता है। संन्यासी का अमृत अगर सैनिक पर गिर जाए, उसका जहर विलीन हो जाता है। आज इतना ही। कीर्तन करें; और फिर जाएं। 371
SR No.002373
Book TitleTao Upnishad Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages432
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy