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________________ ताओ उपनिषद भाग ३ सीख लेगा, फूलों से भी सीख लेगा, आकाश के तारों से भी सीख लेगा। जो गाली देंगे, उनसे भी सीख लेगा; जो फूल चढ़ाएंगे, उनसे भी सीख लेगा। अगर सीखने की कला आ गई हो तो आप शिष्य होते हैं, और यह सारा जगत गुरु होता है। सीखने की कला नहीं आती, इसलिए हम एकाध को गुरु बना लेते हैं। ऐसा समझें कि आप अपने घर में छिपे हैं और एक छोटा सा छेद कर लेते हैं, उसमें से आकाश को देखते हैं। कोई आदमी आकाश के नीचे खड़ा है, घर ही छोड़ दिया। जब एक छोटे से छेद से इतना आकाश दिखता था, तो सोचा कि अब सब दीवारों को गिरा ही दो, बाहर ही खड़े हो जाओ। स्वभावतः, आप अपने घर के भीतर से पूछेगे कि मैं इस नंबर एक के छेद से देख रहा हूं, आपने किस छेद से आकाश को देखा? और वह जो आदमी आकाश के नीचे खड़ा है, वह आपको क्या कहे? क्या दावा करे कि किस छेद से उसने आकाश को देखा? उसकी बड़ी मुसीबत होगी। वह कहेगा, छेद तो कहीं दिखाई नहीं पड़ता, आकाश ही आकाश है। जब सीखने की क्षमता पूरी होती है, तो गुरु कहीं भी नहीं दिखाई पड़ता; क्योंकि गुरु ही गुरु है, आकाश ही आकाश है। तो मेरा कोई दावा नहीं है। और ध्यान रहे, शिष्य होने का कोई दावा नहीं होता। और गुरु होने का तो दावा हो ही नहीं सकता। क्योंकि जो आदमी दावा करता हो कि मैं गुरु है, अभी वह इतना भी नहीं सीख पाया, इतना भी नहीं सीख पाया कि गुरु होकर सत्य में कोई भी प्रवेश नहीं है। इसलिए जो गुरु के दावेदार हैं कि हम गुरु हैं, जानना कि गुरु नहीं हो सकते। गुरु दावेदार नहीं होता। शिष्य दावा कर सकता है कि फलां व्यक्ति मेरा गुरु है। गुरु दावा नहीं कर सकता। और शिष्य भी तभी तक दावा कर सकता है, जब तक अभी पूरी तरह शिष्यत्व उसमें खिला नहीं। नहीं तो फिर सारा जगत गुरु हो जाए, सारी दिशाएं गुरु हो जाएंगी। शिष्यत्व का अर्थ है सीखने की क्षमता। गुरु को पकड़ने की आदत नहीं, सीखने की क्षमता। एक नदी बहती है-कितने किनारों को छूती हुई! कितने पहाड़ों को पार करती हुई। उससे कोई पूछे कि किस घाट का तुम्हारा दावा है ? तो नदी कहेगी, बहुत घाट थे, घाट ही घाट थे। अब उनका नाम लेना भी मुश्किल है। अगर आप जीए हैं ठीक से, जाग कर जीए हैं, तो आपने सब से सीखा है। असंभव है यह कि आप किसी बात से सीखे बिना बच जाएं। लेकिन हम अंधे लोग हैं। इसलिए हम गुरु को भी बनाते हैं। गुरु बनाने का मतलब ही यह है कि आपको शिष्य होने की कला अभी नहीं आई। नहीं तो गुरु क्या बनाना है? शिष्य हो जाना है। गुरु नहीं बनाना है, शिष्य हो जाना है। लेकिन हम गुरु बनाते हैं। हम गुरु इसलिए बनाते हैं ताकि दूसरों से सीखने से बचें। हमारा डर यह है कि सबसे सीखेंगे तो डूबे; एक को पकड़ लें, सहारा पक्का, सब तरफ द्वार-दरवाजे बंद कर लें। हम ऐसे लोग हैं कि हम सोचते हैं कि हम तो एक खिड़की पर खड़े होकर श्वास ले लेंगे और बाकी सब खिड़कियों पर श्वास बंद रखेंगे। मर जाएंगे। जगत चारों तरफ से दे रहा है। इसे लेने में इतनी कंजूसी क्या है? सब तरफ से श्वास लें, शिष्य हो जाएं, गुरु की फिक्र छोड़ें। और जब आप शिष्य हो जाएंगे, तो कदम-कदम पर गुरु उपलब्ध होने लगेगा। जब मैं यह कहता हूं कदम-कदम पर गुरु उपलब्ध होने लगेगा, तो इसका यह मतलब नहीं कि कोई एक बुद्ध आपको, या कोई एक महावीर आपको पकड़ जाएगा और फिर आपके साथ बना रहेगा। जिंदगी अनंत है। बुद्ध का अंतिम दिन था। और आनंद छाती पीट कर रोने लगा और उसने कहा कि आपके रहते मुझे ज्ञान नहीं हुआ! और अब आप जा रहे हैं तो मेरा क्या होगा? तो बुद्ध ने कहा, आनंद, पागल मत बन। मुझसे पहले हजारों बुद्ध हुए हैं; मुझसे बाद हजारों बुद्ध होते रहेंगे। और अगर तू सीखने में कुशल है तो तुझे हर कदम पर बुद्ध मिल जाएंगे। और अगर तू सीखने में कुशल नहीं है तो चालीस साल से तू मेरे साथ ही था, इससे भी तूने क्या सीख लिया है? बड़े मजे की बात है कि चालीस साल तू मेरे साथ था और तू कहता है कि तुझे ज्ञान नहीं हुआ। और अब जब मैं 268
SR No.002373
Book TitleTao Upnishad Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages432
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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