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________________ ताओ उपनिषद भाग ३ लाओत्से कहता है, जिन्हें परमात्मा के मंदिर में प्रवेश करना है, उन्हें चोर के कदमों की चाल सीखनी चाहिए। आवाज न हो, निशान न छुटे, कहीं कोई पता भी न हो। बैंड-बाजे बजा कर, स्वागत-समारोह से, जलसों में, शोभायात्रा निकाल कर उस मंदिर में कोई प्रवेश नहीं है। कोई कितनी ही प्रदक्षिणाएं करता रहे उस मंदिर की शोभायात्राओं में, उस मंदिर में प्रवेश नहीं है। उसमें तो कोई कभी चोरी-छिपे प्रवेश पाता है। कोई कभी जब जगत में एक पत्ते को भी खबर नहीं होती, कोई उस मौन क्षण में, निबिड़ क्षण में, प्रविष्ट हो जाता है। यह जरा कठिन है। दूसरे को खबर न हो इतना ही नहीं, उस परमात्मा के मंदिर में प्रवेश जब होता है, तो खुद को भी खबर नहीं होती, इतनी भी आवाज नहीं होती। हो जाता है प्रवेश, तभी पता चलता है कि प्रवेश हो गया। अगर खुद को भी पता चल रहा हो कि प्रवेश हो रहा है तो समझना कि कल्पना चल रही है। मन धोखा दे रहा होगा। परमात्मा में डूब कर ही पता चलता है कि डूब गए। डूबते क्षण में भी पता नहीं चलता, क्योंकि उतना भी पता चल जाए तो रुकावट हो जाएगी। पता पड़ना बाधा है। क्योंकि आपका चेतन मन और आपका अहंकार खड़ा हो गया, जैसे ही पता चला। इसे थोड़ा ऐसा देखें। कोई क्षण है और आपको लग रहा है बड़े आनंदित हैं। जैसे ही चेतन हो जाते हैं आप कि आनंदित हूं, आनंद खो जाएगा। ध्यान कर रहे हैं और अचानक आपको पता चला कि ध्यान हुआ, कि आप पाएंगे ध्यान खो गया। किसी के गहरे प्रेम में हैं और आपको पता चला कि मैं प्रेम में हूं, और आप पाएंगे कि वह बात खो गई, वह सुगंध विलीन हो गई। जीवन का जो गहनतम है, वह चुपचाप मौन में घटित होता है। शब्द बनते ही तिरोहित हो जाता है। फिर हमारे हाथ में शब्द रह जाते हैं-परमात्मा, प्रेम, प्रार्थना, ध्यान, आनंद-शब्द रह जाते हैं। वह जो अनुभव था, वह खो जाता है। लाओत्से तो कहता है कि जब भी कोई चीज पूर्णता के निकट पहुंचती है, तो चुप हो जाती है। इसे हम एक-दो ताओइस्ट कहानियों से समझें। एक कहानी मुझे बहुत प्रीतिकर रही है। एक सम्राट ने अपने दरबार के सबसे बड़े धनुर्विद को कहा कि अब तुझसे बड़ा धनुर्विद कोई भी नहीं है। तो तू घोषणा कर दे राज्य में और अगर कोई प्रतिवादी न उठे तो मैं तुझे राज्य का सबसे बड़ा धनुर्धर घोषित कर दूं। द्वार पर जो द्वारपाल खड़ा था, वह हंसा। क्योंकि धनुर्विद ने कहा कि घोषणा का क्या सवाल है, घोषणा कल की जा सकती है। कोई धनुर्विद नहीं है, जो मेरी प्रतियोगिता में उतर सके। द्वारपाल हंसा तो धनुर्विद को हैरानी हुई। लौटते में उस बूढ़े द्वारपाल से उसने पूछा, तुम हंसे क्यों? उसने कहा कि मैं इसलिए हंसा कि तुम्हें अभी धनुर्विद्या का आता ही ' क्या है ? एक आदमी को मैं जानता हूं। तुम पहले उससे मिल लो, फिर पीछे घोषणा करना। पर उस धनुर्विद ने कहा कि ऐसा आदमी हो कैसे सकता है जिसका मुझे पता न हो? मैं इतना बड़ा धनुर्विद! उस द्वारपाल ने कहा कि जो तुमसे भी बड़ा धनुर्विद है, उसका किसी को भी पता नहीं होगा। यह पता करने और कराने की जो चेष्टा है, यह सब छोटे मन के खेल हैं। तुम रुको। जल्दी मत करना, मुसीबत में पड़ जाओगे। मैं उस आदमी का पता तुम्हें दे देता हूं। तुम वहां चले जाओ। वह धनुर्विद उस आदमी का पता लगाते गया, एक जंगल की तलहटी में वह आदमी रहता था। तीन दिन उसके पास रहा, तब उसे पता चला कि अभी तो यात्रा धनुर्विद्या की शुरू भी नहीं हुई। तीन साल उस आदमी के चरणों में बैठ कर उसने धनुर्विद्या सीखी। लेकिन तब मन ही मन में उसे डर भी लगने लगा। अब पुराना आश्वासन न रहा कि मुझसे बड़ा धनुर्विद कोई नहीं है। यह साधारण सा आदमी लकड़ियां बेचता था गांव में, यह इतना बड़ा धनुर्विद था। और इसके बाबत किसी को खबर भी नहीं है। पता नहीं कितने और छिपे हुए लोग हों! लेकिन तीन वर्ष उसके पास रह कर उसका आश्वासन लौट आया। वह आदमी अदभुत था। उसके हाथ में कोई भी चीज जाकर तीर बन जाती थी। वह लकड़ी का टुकड़ा भी फेंक दे तो तीर हो जाता था। वह इतना कुशल था 214
SR No.002373
Book TitleTao Upnishad Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages432
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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