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अद्वैत की अबूठी दृष्टि लाओत्मे की
जाते हैं, एक छोर हमारे लिए ओझल हो जाता है। और इन दोनों को हम अब तक नहीं जोड़ पाए। जो जोड़ लेते हैं, वे परम संत हैं। इन दोनों छोरों को जो जोड़ लेते हैं, देख लेते हैं जुड़ा हुआ, वे परम संत हैं। जो नहीं जोड़ पाते, उन्हें हम अज्ञानी कहते हैं। इतना ही अज्ञान है कि अस्तित्व हमारे लिए सदा दो में बंटा हुआ दिखाई पड़ता है-मित्र में, शत्रु में; प्रेम में, घृणा में; प्रकाश में, अंधकार में; शुभ में, अशुभ में; स्वर्ग में, नरक में हमें बंटा हुआ दिखाई पड़ता है। . स्वर्ग और नरक एक ही चीज के दो छोर हैं। और इसलिए स्वर्ग से नरक जाने में, नरक से स्वर्ग आने में अड़चन नहीं होती। यात्रा सुगम है। सुख से दुख में जाने में कितनी देर लगती है? कभी आपने खयाल किया कि जब आप सुख से दुख में प्रवेश करते हैं, तो कौन सा क्षण है जहां सुख दुख बन जाता है? किस जगह आकर सुख समाप्त होता है और दुख शुरू होता है?
अगर आप इतनी खोज करें तो आपको पता चलेगा, वह क्षण आता ही नहीं कभी। जितना आप खोजेंगे उतना आप पाएंगे कि दुख और सुख के बीच में कोई अंतराल नहीं है, कोई खाई नहीं है। सुख और दुख के बीच में कोई गैप नहीं है। जितना आप खोजेंगे, उतना ही आप पाएंगे कि सुख दुख का ही एक छोर है। दुख कभी शुरू नहीं होता। जब आप सुख में थे, तब भी मौजूद था। सिर्फ आप आधे को देख रहे थे। धीरे-धीरे जब पूरा आपकी झलक में आता है, दूसरा छोर दिखाई पड़ता है, तो दुख हो जाता है। सब दुख सुख बन सकते हैं, सब सुख दुख बन सकते हैं। इंटरचेंजेबल हैं, उनमें कहीं कोई अवरोध नहीं है। कहीं कोई झटका भी नहीं लगता जब आप सुख से दुख में जाते हैं। इतना भी नहीं जितना कि गियर बदलने में गाड़ी में लगता है। इतना भी नहीं। कोई बदलाहट ही नहीं होती;
जब आप सुख से दुख में
बदलने में गाड़ी में लगता है।
आप एक ही पटरी पर होते है
इसलिए एक बहुत मजे की बात है और वह यह है कि जहां-जहां आपको विरोध दिखाई पड़ता हो, वहां-वहां विरोध नहीं है, अविरोध है। यह जो अविरोध है, यह सिर्फ अविरोध ही नहीं है। लाओत्से दूसरी बात भी कहता है। वह कहता है, न केवल यह अविरोध है, बल्कि यह परिपूरक है, यह कांप्लीमेंटरी है। इतना ही नहीं है कि सुख और दुख में विरोध नहीं है, बल्कि इतना भी कि सुख का आधार दुख है और दुख का आधार सुख है। इतना ही नहीं कि शुभ और अशुभ दुश्मन नहीं हैं, बल्कि मित्र हैं, और एक-दूसरे के सहयोगी हैं।
ऐसी कोई दुनिया की कल्पना करें जहां कोई असाधु न हो, साधुओं की एकदम मृत्यु हो जाएगी। जहां कोई अज्ञानी न हो, वहां ज्ञानी एकदम व्यर्थ हो जाएंगे। उनका पता ही नहीं चलेगा। एक के साथ दूसरा जुड़ा है। और एक के सहारे दूसरा खड़ा है। . यह साधक के लिए बहुत कीमत की बात है। क्योंकि साधक पूरी जिंदगी इसी उपद्रव में पड़ा होता है। संसारी भी इसी उपद्रव में पड़ा होता है और साधक भी। फर्क उनके विषयों के चुनाव का होता है। संसारी इसमें पड़ा होता है कि सुख बचे और दुख हट जाए। और साधक इसमें पड़ा होता है कि शुभ बचे और अशुभ हट जाए। लेकिन दोनों की भूल एक ही है। जिसको आप संन्यासी कहते हैं, वह भी उसी भूल में होता है जिसमें संसारी होता है। उनके चुनाव अलग हैं। संसारी कहता है, मैं सुख बचा लूंगा, दुख को काट डालूंगा। आज नहीं कल श्रम से, पुरुषार्थ से दुख को मिटा दूंगा, सुख को बचा लूंगा। संन्यासी कहता है कि सुख-दुख में मुझे रस नहीं है, मैं शुभ को बचाऊंगा, अशुभ को मिटा दूंगा। जो बुरा है उसे हटा दूंगा और जो भला है उसे बचा लूंगा।
ऊपर से दोनों बड़े विपरीत दिखाई पड़ते हैं, लेकिन लाओत्से के हिसाब से दोनों की दृष्टि एक सी भ्रांत है। शुभ और अशुभ भी एक ही चीज के दो छोर हैं। कहां शुभ अशुभ बन जाता है, कहना मुश्किल। कहां अशुभ शुभ बन जाता है, कहना मुश्किल। और जिंदगी इतना बड़ा विस्तार है कि अगर हम परे को देख पाएं तो हम यह द्वैत की भाषा ही छोड़ दें।
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