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________________ वर्तुलाकार अस्तित्व में यात्रा प्रतियात्रा भी हैं 169 लाओत्से कहता है, जननी बनने योग्य वह कुहासा था । सब उससे पैदा हो सकता है। स्रष्टा नहीं है वह, जननी है। सब उससे निकल सकता है, जैसे मां से बेटा निकल सकता है। वह कोई कुम्हार की तरह घड़ा बनाने वाला नहीं है। मां की तरह है, उसके ही गर्भ से सब पैदा हो सकता है; सब संभावित है। 'मैं उसका नाम नहीं जानता हूं।' लाओत्से कहता है, मैं उसका नाम नहीं जानता हूं। यही नहीं कहता कि उसका नाम कहा नहीं जा सकता है; वह यह कहता है कि मैं उसका नाम जानता ही नहीं हूं। यह तो बहुत लोगों ने कहा है कि उसका नाम कहा नहीं जा सकता। लेकिन उसमें यह भी लग सकता है कि उनको तो पता है; कह नहीं सकते, कहने में तकलीफ है। जैसा हम निरंतर कहते हैं, गूंगे का गुड़ । हम कहते हैं, गूंगा कह नहीं सकता कि गुड़ मीठा है, लेकिन गूंगे को पता तो है मीठा है। इसमें कोई शक नहीं है कि गूंगे को पता नहीं है, गूंगे को पता है, कह नहीं पाता । तो हमने कहा है कि संतों को पता है, कह नहीं पाते। क्योंकि भाषा असमर्थ है। लाओत्से बहुत हिम्मत से कहता है, वह कहता है, मैं उसका नाम नहीं जानता हूं। मुझे उसका नाम पता ही नहीं है। क्योंकि उसका नाम है ही नहीं। यह सिर्फ अभिव्यक्ति की कठिनाई नहीं है; अस्तित्व अनाम है। बोधिधर्म चीन गया। लाओत्से जैसा ही अनूठा आदमी था। भारत ने जो दस पांच अनूठे आदमी पैदा किए, उनमें बोधिधर्म एक है। वह चौदह सौ साल पहले चीन गया। सम्राट ने उसका स्वागत किया । और सम्राट ने बड़ी आशाएं बांध कर रखी थीं। इतना महान मनीषी आता था तो सम्राट के मन में बड़े लोभ थे, बहुत कुछ हो सकेगा। सम्राट ने आते ही उससे पूछा, बोधिधर्म से, कि मैंने इतने - इतने मंदिर और विहार बनवाए, इनका क्या लाभ होगा ? बोधिधर्म ने कहा, कुछ भी नहीं, नथिंग । सम्राट थोड़ा चौंका। क्योंकि संन्यासी आमतौर से ऐसी भाषा नहीं बोलते। ऐसी भाषा बोलें तो संन्यासी जी नहीं सकते। संन्यासी समझाते हैं, इतना पुण्य करो, इससे हजार गुना मिलेगा। पुण्य तो संन्यासियों को मिलता है, हजार गुना मौत के बाद का सवाल है। उसके बाबत अब तक कुछ तय नहीं हुआ कि कितना गुना मिलता है, कि नहीं मिलता, कि पाप लगता है, कि क्या होता है। कुछ पता नहीं है। पुरोहित अगर ऐसी भाषा बोलें, बोधिधर्म जैसी, तो सारा धंधा टूट जाए। पुरोहित का धंधा आपके लोभ के शोषण पर निर्भर है। वह आपको कहता है, एक पैसा छोड़ो गंगा जी में, करोड़ मिलेंगे वहां, करोड़ गुना पाओगे । करोड़ गुना के लोभ में आदमी एक पैसा छोड़ता है। यह एक पैसा पुरोहित को मिल जाता है। बाकी करोड़ इसको मिलते हैं या नहीं मिलते, यह यह आदमी जाने। बोधिधर्म के पहले और भी बौद्ध भिक्षु आए थे चीन में। उन्होंने सम्राट को समझाया था, विहार बनवाओ, मंदिर बनवाओ, बुद्ध की प्रतिमाएं बनवाओ। बड़ा पुण्य होगा। स्वर्ग तुम्हारा होगा। और बोधिधर्म कहता है, कुछ भी नहीं। तो सम्राट ने दुबारा – सोचा, शायद बोधिधर्म समझा नहीं – तो उसने कहा कि मैंने इतने पवित्र कृत्य किए, उनका पुण्य क्या? बोधिधर्म ने कहा, कोई कृत्य पवित्र नहीं है। सम्राट ने पूछा, धर्म क्या है ? सोचा उसने, छोड़ो पुण्य की बात। बोधिधर्म ने कहा, पूछो और उत्तर मिल जाए, ऐसा धर्म नहीं है। जीओ, पा सकते हो। तब सम्राट ने सोचा, यह हद हो गई। और सम्राट था, साधारण आदमी न था । उसके अहंकार को भारी चोट लग रही है बार-बार। हजारों लोग इकट्ठे थे। वे सुन कर बोधिधर्म का उत्तर मुस्कुराते । और सम्राट को दीनता मालूम होने लगी। तो सम्राट ने कहा, ये सब बातें छोड़ो; इसका भी पता नहीं, उसका भी पता नहीं । तुम कौन हो ? हू आर यू? बोधिधर्म ने कहा, आई डोंट नो, मुझे पता नहीं, मुझे बिलकुल पता नहीं। हम सोचेंगे शायद बोधिधर्म को था, मैं आत्मा हूं, मैं ब्रह्म हूं। उसने कहा कि आई डोंट नो, मुझे पता ही नहीं है।
SR No.002373
Book TitleTao Upnishad Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages432
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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