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________________ शनीर व आत्मा की एकता, ताओ की प्राण-साधना व अविकारी स्थिति एक मित्र अभी आए थे कुछ समय पहले। और मुझसे कहने लगे, हम किसी गुरु वगैरह को नहीं मानते हैं, क्योंकि हम कृष्णमूर्ति को सुनते हैं। क्योंकि हम कृष्णमूर्ति को सुनते हैं, हम किसी गुरु वगैरह को नहीं मानते। मैंने उनसे पूछा कि यदि कृष्णमूर्ति को सुन कर ही यह खयाल पैदा हुआ है, तो गुरु तो हो गए। यह खयाल तुम्हारा नहीं है। पहले तुम दूसरों के खयाल मानते रहे, अब भी दूसरे का ही खयाल मान रहे हो। कहने लगे कि नहीं, हम कृष्णमूर्ति को गुरु नहीं मानते। तो मैंने कहा, फिर अब सुनने किसलिए जाते हो? अब सुनने की क्या जरूरत रही? कहा उन्होंने कि सुनने जाते हैं समझने के लिए। तो मैंने कहा, गुरु का और मतलब ही क्या होता है? कि जिससे हम समझते हैं। और गुरु का क्या मतलब होता है? कि जिसके पास हम समझने जाते हैं। आदमी अगर बुद्धि की ही जगह खड़ा रहे, तो बुद्धि के विपरीत बातों को भी बुद्धि से ही पकड़ेगा। इसमें कोई अस्वाभाविक बात नहीं है, स्वाभाविक है। नहीं, असली सवाल सिर्फ बुद्धि से ही जाल को काटने का नहीं है, क्योंकि बुद्धि नए जाल बना लेगी; बुद्धि से हट जाने का है। कैसे एक छलांग लगे कि हम बुद्धि से हट जाएं? तो इस बुद्धि से हटने के दो प्रयोग किए गए हैं। एक प्रयोग है कि आदमी विचार छोड़ दे, भाव में पड़ जाए। जैसे मीरा है; तो मीरा विचार नहीं करती, भाव में पड़ गई है। नाचती है, गाती है, कीर्तन करती है। लेकिन भाव भी बहुत गहरे नहीं ले जाता। बुद्धि से तो गहरे ले जाता है, इसलिए बुद्धि से तो बेहतर है। बुद्धि से तो कुछ भी बेहतर हो सकता है। गहरे ले जाता है। लेकिन लाओत्से जो कह रहा है, वह और गहरे ले जाता है। वह कहता है, भाव भी आखिर बहुत कुछ बुद्धि के पास है। हम तो वहां चलते हैं, जहां भाव भी नहीं रह जाता, विचार भी नहीं रह जाता। न बुद्धि और न हृदय, न ज्ञान और न भक्ति। हम वहां चलते हैं, जहां चित्त निर्विकार हो जाता है, जहां शुद्ध अस्तित्व रह जाता है। इस शुद्ध अस्तित्व के लिए सारी कल्पनाओं का कचरा झाड़-पोंछ कर अलग कर देना जरूरी है। लेकिन यह कौन करेगा? अगर बुद्धि से ही आपने यह काम लिया, तो आप गलती में पड़ जाएंगे। बुद्धि इसे झाड़ कर अलग कर देगी, लेकिन नए जाल बना कर खड़े कर देगी। और ध्यान रहे, पुराने जालों से नए जाल ज्यादा खतरनाक हैं। क्योंकि पुरानों को तो छोड़ने का मन भी होता है, नए को पकड़ने का और सम्हालने का मन होने लगता है। पुराने गुरुओं से नए गुरु खतरनाक हो जाते हैं। और पुराने शास्त्रों से नए शास्त्र खतरनाक हो जाते हैं। क्योंकि नए में नएपन का भी आग्रह और मोह है। और अगर किसी को यह खयाल आ गया कि मैं समर्थ हो गया हूं सारे जाल को काटने में, तो यह अहंकार बुद्धि के केंद्र पर खड़ा होकर सबसे बड़ा जाल बन जाता है। नहीं, इससे नीचे हटना पड़ेगा। यह बहुत मजे की बात है कि अगर आप नाभि से श्वास लेने लगें, तो आप अहंकारी नहीं रह जाएंगे। आपको कुछ करना नहीं पड़ेगा कि अहंकार छोड़ने जाएं। नहीं, आप नहीं रह जाएंगे। क्योंकि नाभि पर अहंकार के टिकने का उपाय नहीं है। अहंकार इतना बड़ा तनाव है कि नाभि से श्वास चलती हो, तो नहीं टिक सकता। इतना शांत हो जाता है भीतर सब। तो लाओत्से अपने शिष्यों की परीक्षाएं लिया करता था। वह उनको सवाल देता, वे ठीक जवाब ले आते और लाओत्से फाड़ कर फेंक देता। क्योंकि उनके पेट पर हाथ रख कर देखता और कहता, सवाल बेकार गया, जवाब गलत है। एक युवक आया हुआ था और उसने लाओत्से से कहा, तुम पागल तो नहीं हो! तुमने जो समझाया था, ठीक वही-वही लिख कर लाया हूं। लाओत्से ने कहा, वह तो बिलकुल ठीक है, लेकिन जो लिख कर लाया है, उसकी श्वास! उसकी श्वास नाभि से नहीं चल रही है। और यह जवाब तो तभी आ सकता है भीतर से, जब श्वास नाभि से चल रही हो। तुम मुझे सुन कर ले लाए हो। यह बुद्धि से सुना गया था, बुद्धि से दे दिया गया है। तुम्हारे भीतर इसका कोई भी अनुभव नहीं है।
SR No.002372
Book TitleTao Upnishad Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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