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________________ धर्म है-स्वयं जमा हो जाना इसलिए जो आदमी मोक्ष की वासना में पड़ा है, वह बिलकुल शुद्ध जहर में पड़ा हुआ है। वहां कुछ है ही नहीं। एक दफा संसार में दौड़ने वाला संसार को पा भी ले, मोक्ष के लिए दौड़ने वाला मोक्ष को कभी नहीं पा सकता। धन की तरफ दौड़ने वाला, धन की वासना करने वाला धन को पा ले, इसमें कोई बड़ी आश्चर्य की बात नहीं है। सभी पा लेते हैं। लेकिन मोक्ष की तरफ दौड़ने वाले ने कभी मोक्ष नहीं पाया है। वह असंभव है। . इसलिए जो आदमी वासना को मोक्ष की तरफ लगाता है, वह तो बहुत खतरनाक काम कर रहा है। वह तो वासना को ऐसी जगह लगा रहा है कि वह कभी भी सफल नहीं हो सकती। संसार में तो सफल हो भी सकती है। संसार में वासना सफल भी होती है, असफल भी होती है। कोई पा लेता है, कोई नहीं पाता है। मोक्ष में वासना की सफलता का उपाय ही नहीं है। क्योंकि मोक्ष का अर्थ ही निर्वासना है। मोक्ष और वासना में कहीं कोई संबंध नहीं जुड़ता। इसलिए सांसारिक उतनी बड़ी भूल में नहीं है जितना तथाकथित आध्यात्मिक भूल में है, क्योंकि वह जो खोज रहा है वह संभव है। और आध्यात्मिक जो खोज रहा है, वह असंभव है। तो एक आदमी अगर बाजार में बैठ कर धन और यश खोज रहा है, असंभव की तलाश नहीं है वह, संभव है। लेकिन एक आदमी मंदिर में बैठ कर परमात्मा को खोज रहा है, एक आदमी वन में बैठ कर मोक्ष को खोज रहा है, वह असंभव को खोज रहा है। असल में, परमात्मा खोजा नहीं जाता; जब खोज बंद हो जाती है, तो वह यहीं मौजूद है। खोज के कारण ही वह दिखाई नहीं पड़ता। जैसे एक आदमी तेजी से दौड़ रहा हो इस कमरे में और खोज रहा हो, उसकी दौड़ के कारण ही चीज दिखाई न पड़ती हो। उसकी तेज इतनी हो दौड़ कि कुछ दिखाई न पड़ता हो। जैसे एक आदमी बैलगाड़ी में सफर करता है, तो आस-पास के दृश्य दिखाई पड़ते हैं। फिर हवाई जहाज में सफर करता है, तो डिटेल्स खो जाते हैं। फूल नहीं दिखाई पड़ते, वृक्ष नहीं दिखाई पड़ते; जंगल दिखाई पड़ते हैं। विस्तार खो जाता है। सूक्ष्मताएं खो जाती हैं। फिर एक आदमी राकेट में यात्रा करता है, तब जंगल भी खो जाते हैं, तब कुछ दिखाई नहीं पड़ता। जितनी हो जाती है तेज गति, उतनी ही दृष्टि अंधी हो जाती है। फिर कुछ दिखाई नहीं पड़ता। जितनी हो जाती है तेज दौड़ वासना की, उतनी ही आंखें अंधी हो जाती हैं। दौड़ का धुआं और दौड़ की धूल इतनी भर जाती है, कुछ दिखाई नहीं पड़ता। और जिसको हम खोज रहे हैं, वह केवल तभी दिखाई पड़ता है जब आंखों पर कोई धुआं न हो, कोई धूल न हो, इतना विश्राम में हो मन कि जरा सी भी चहल-पहल न हो, जरा सी भी तरंग न हो बाधा डालने को। सब हो शून्य, मन बिलकुल झील की तरह शांत हो; तत्क्षण उसकी तस्वीर, तत्क्षण उसका प्रतिबिंब बन जाता है। तत्क्षण वह दिखाई पड़ने लगता है। तो लाओत्से कहता है, वासना संसार है। इसलिए कोई वासना आध्यात्मिक नहीं होती। और जो वासना को अध्यात्म का रंग देते हैं, वे अपने को बड़े से बड़ा धोखा दे रहे हैं। सांसारिक क्षम्य हैं, तथाकथित आध्यात्मिक अक्षम्य हैं। क्योंकि उन्होंने संसार की विधि को, और परमात्मा पर लगाया हुआ है। विधि संसार की है, ढंग संसार का है, और आकांक्षा परमात्मा की है। वासना, लोभ सब सांसारिक है, और इच्छा परमात्मा की है। हम संसार को परमात्मा की तरफ नहीं मोड़ सकते। हम सांसारिक वृत्तियों को अध्यात्म की तरफ नहीं मोड़ सकते। सांसारिक वृत्तियां विलीन हो जाएं तो जो शेष रह जाता है, वही अध्यात्म है। एक मित्र ने पूछा है कि लाओत्से ने जिस शुद्ध परम सत्य की चर्चा की है, धारणा मात्र को प्रक्षेप माना है और स्वभाव में ले जाने में धारणा मात्र से बाधा पड़ती है, इस परिप्रेक्ष्य में क्या धर्म या सत्य सदा हम साधारण लोगों की पहुंच के बाहर ही रहेगा? और क्या लाओत्से कथित सरल, सहज स्वभाव का आलिंगन अति दुर्लभ ही बना रहेगा? 377
SR No.002372
Book TitleTao Upnishad Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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