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ताओ उपनिषद भाग २
तो जैसे ही बच्चे को यह खयाल में आ जाता है कि जननेंद्रिय अस्वीकार करनी है, निंदित है, पाप है, वैसे ही उसकी श्वास ऊपर से चलने लगती है। क्योंकि तांदेन पर चोट पहुंचते ही बच्चे की जननेंद्रिय पर संवेदना होती है।
और वह संवेदना सुखद है। वह संवेदना सुखद है; उस सुखद संवेदना के कारण वह जननेंद्रिय के प्रति आतुर और उत्सुक होता है। लेकिन मां-बाप की आंखें और समाज की आंखें बहुत दुखद हैं। और तब एक फासला उसके भीतर पैदा होना शुरू होता है। अंततः तो सुख भी पाप हो जाता है। और सुख लेते वक्त हम सब अपने को अपराधी अनुभव करते हैं।
यह बड़े मजे की बात है कि जब भी आप अपने को सुखी पाएंगे, तो भीतर अपराध का भाव पाएंगे। इसलिए कुछ लोग तो दुखी होने में बड़ा गौरव मानने लगते हैं, क्योंकि वे अपराधी नहीं हैं। सुखी आदमी को थोड़ा सा अपराध मालूम पड़ता है, क्योंकि उसके पहले सुख के अनुभव के साथ अपराध का भाव जुड़ गया। और इसलिए हम जीते हैं, लेकिन बंटे हुए जीते हैं।
अगर तांदेन तक श्वास न पहुंचे, तो नपुंसकता तक भी फलित हो सकती है। ताओ को मानने वाले चिकित्सकों का खयाल है कि अनेक पुरुषों की नपुंसकता केवल श्वास के तांदेन तक न पहुंचने से पैदा होती है। इसलिए बहुत मजे की बात आपसे कहूं, अक्सर पहलवान नपुंसक हो जाते हैं। उसका कारण है। क्योंकि पहलवान छाती से श्वास लेता है; और इतनी श्वास छाती से लेता है और पेट को भीतर ले जाता है कि तांदेन तक श्वास के पहुंचने की संभावना ही बंद हो जाती है। इसलिए पहलवान दिखता तो बहुत विराइल है, दिखता तो बहुत पुरुष है, लेकिन पुरुषत्व बहुत कम हो जाता है। पुरुषत्व के और उसके बीच श्वास का संबंध टूट जाता है।
श्वास अगर तादेन से चले, तो वह तभी चल सकती है, जब आपने अपनी कामवासना को भी स्वीकार किया हो। अगर अस्वीकार किया है, तो श्वास तांदेन से नहीं चल सकेगी। असल में, जब तक आपने अपनी पूरी वासना को भी समग्रीभूत अंगीकार न कर लिया हो, शिशुवत स्वीकार न कर लिया हो, तब तक आपके भीतर अद्वैत निर्मित नहीं हो सकता है। और यह बहुत आनंद की अदभुत बात है कि जैसे ही कोई व्यक्ति अपनी वासना को उसकी . समग्रता में स्वीकार कर लेता है, वैसे ही वासना से मुक्त हो जाता है। द्वंद्व में वासना बढ़ती है, घटती नहीं। तड़पती है, तृप्त भी नहीं होती। संतप्त होती है, संतुष्ट कभी नहीं। पीड़ा बन जाती है, नर्क बन जाती है, लेकिन उससे छुटकारा कभी नहीं हो पाता। और तर्क हमसे कहेगा कि जिस चीज में हम इतने उलझ गए हैं, उससे और दूर हटते चले जाएं। जितने दूर हम हटते हैं, उतना फासला भीतर बड़ा होता चला जाता है।
लाओत्से कहता है कि आलिंगनबद्ध हो जाओ, अपनी ऐंद्रिकता को समग्र रूप से स्वीकार कर लो। स्वीकार करते ही तुम उसके मालिक हो जाओगे। स्वीकार करते ही द्वंद्व मिट जाएगा। और स्वीकार करते ही निष्पत्ति, निष्कर्ष हाथ में आ जाता है। जो बुद्धि अपनी वासना को पूरे रूप से स्वीकार कर लेती है, वह बुद्धि अपनी वासना के पार निकल जाती है। लेकिन यह पार निकलना संघर्ष से संभव नहीं होता, द्वंद्व से भी संभव नहीं होता। यह निर्द्वद्व स्वीकार-भाव से संभव होता है। प्राणवायु को नमनीयता की चरम सीमा तक पहुंचाना पहला प्रयोग है। ताओ की साधना में जो उतरते हैं, उनका पहला काम यह है कि वे श्वास को फेफड़ों से लेना बंद कर दें, नाभि से लेना शुरू करें। इसका अर्थ हुआ कि जब आपकी श्वास भीतर जाए, तो पेट ऊपर उठे; और जब श्वास नीचे गिरे, तो पेट नीचे गिरे। और सीना शिथिल रहे, शांत रहे।
शायद पुरुष राजी भी हो जाएं, क्योंकि सभी पुरुषों को पहलवान होने का पागलपन नहीं है। स्त्रियां और भी मुश्किल से राजी हो सकती हैं। क्योंकि स्त्रियों को उससे भी बड़ा पागलपन सवार हुआ है। और वह है स्तन को सुदृढ़, सुडौल और बड़े बनाने का। तो स्त्रियां कभी नाभि से श्वास लेने को तैयार नहीं होती।
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