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आध्यात्मिक वासना का त्याग व सरल स्व का उदघाटन
'इसके लिए तुम अपने सहज स्व का उदघाटन करो।'
सहज लाओत्से छोड़ता नहीं। लाओत्से की सहज पर वैसी ही पकड़ है, जैसी कबीर की। कबीर कहते हैं : साधो, सहज समाधि भली। कबीर के सारे गीतों में सहज की वही पकड़ है, जो लाओत्से की सहज पर है। इस सहज शब्द को भी हम ध्यान में ले लें। . स्व की कोई धारणा अगर बना कर कोई भीतर जाए, तो वह सहज स्व न होगा। समझें, मैं आपके पास आऊं मिलने और आपके संबंध में कोई धारणा पहले से बना कर आऊं, तय कर लूं कि भले आदमी हैं, साधु हैं, सज्जन हैं, ऐसी कोई धारणा लेकर आऊं। तो आपको मैं अपनी धारणा की ओट से देखेंगा। और जो भी मुझे आप दिखाई पड़ेंगे, वह आपका सहज रूप न होगा। उसमें मेरी धारणा मिश्रित हो जाएगी। हो सकता है, आप मुझे बहुत बड़े साधु मालूम पड़ें। वैसे आप हों न, सिर्फ मेरी धारणा की ही अतिशयोक्ति हो। क्योंकि जब मैं तय करके आता हूं कि आप साधु हैं, तो मैं आपमें वही देखता हूं, जो मेरी धारणा को सिद्ध करे। मेरा चुनाव शुरू हो जाता है। आपमें जो गलत है, वह फिर मुझे दिखाई नहीं पड़ेगा। आपमें जो ठीक है, वह दिखाई पड़ेगा। और ठीक को मैं इकट्ठा करता जाऊंगा। और मेरी धारणा मजबूत होगी, फैलेगी, फूल जाएगी। मेरे भीतर आप एक बड़े साधु की तरह प्रकट होंगे। वह आपकी सहजता हो या न हो, यह दूसरी बात है।
मैं पहले से ही तय करके आता हूं कि आप बुरे आदमी हैं, मैं आप में से बुरे को चुन लूंगा। जब हम धारणा से देखते हैं, तो हम चुनाव करते हैं। सत्य फिर हमें दिखाई नहीं पड़ता। फिर सत्य में से हम चुन लेते हैं, जो हमारे अनुकूल हो। अगर बुद्ध के संबंध में भी कोई आपसे कह दे कि वे आदमी बुरे हैं और आपकी धारणा मजबूत हो जाए, फिर आप बुद्ध के पास जाएं, आपको बुद्ध का कोई पता नहीं चलेगा। आप अपने ही बुरे आदमी को सिद्ध करके वापस लौट आएंगे। मनुष्य की बड़ी से बड़ी कठिनाई यही है कि वह जो मान लेता है, वह सिद्ध भी हो जाता है। वह जो विश्वास कर लेता है, वह तथ्य भी बन जाता है। हमारे विश्वास ही हमें सत्य की तरह प्रतीत होने लगते हैं। और हम सब धारणाएं बना कर चलते हैं। हम अपने संबंध में भी धारणा बना कर चलते हैं।
लाओत्से या कबीर या सहज की जिनकी धारणा है, वे सब कहते हैं कि सहज स्व का उदघाटन का अर्थ है कि तुम इस भीतर के सत्य के संबंध में कोई धारणा बना कर मत जाना। नहीं तो उसी धारणा का तुम अनुभव कर लोगे। एक आदमी सोच कर जाता है कि वहां ऐसा होगा, ऐसा होगा, ऐसा होगा। ऐसा मान कर जाता है। फिर वैसा होने लगेगा। वह होना सत्य नहीं है। वह उसकी अपनी ही धारणा का खेल है। वह उसके अपने मन का ही प्रपंच है। वह उसकी ही लीला, उसका ही विस्तार है।
और हम सभी लोग आत्मा के संबंध में धारणा बना कर बैठे हुए हैं। कोई आदमी मान कर बैठा हुआ है कि आत्मा का ऐसा रूप होगा; कोई मान कर बैठा है, ऐसा रंग होगा; कोई मान कर बैठा है, ऐसा अनुभव होगा; कोई मान कर बैठा है, ऐसी प्रतीति होगी। उन मान्यताओं को लेकर अगर आप अपने भीतर गए, तो आपको जो प्रतीति होगी, वह आत्मा की नहीं है।
___ इसलिए लाओत्से कहता है, इस स्व के संबंध में कोई धारणा मत बनाना, कोई कंसेप्शन लेकर मत जाना, खाली जाना। खाली आंख लेकर जाना। आंख पर कोई चश्मा लगा कर मत जाना। अन्यथा आत्मा में वही रंग दिखाई पड़ने लगेगा, जो चश्मे का रंग है।
इसीलिए तो दुनिया में इतने धर्मों के लोग और इतने अलग-अलग तरह के अनुभव को उपलब्ध हो जाते हैं। वे अनुभव वास्तविक नहीं हैं। उनकी आंखों के रंग हैं, वे ही रंग वे देख लेते हैं अपने भीतर भी। और भीतर की एक कठिनाई है कि वहां आप अकेले ही जा सकते हैं। इसलिए कोई के साथ आप चेक नहीं कर सकते, किसी के साथ
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