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ताओ उपनिषद भाग २
वह बाहर भी नहीं है, वह भीतर भी नहीं है। जो आदमी दुख में नहीं है, वह द्वार पर खड़ा हो जाता है। दुख में भी नहीं है, आनंद में भी नहीं है। अगर भीतर जाए, तो आनंद में प्रवेश होगा; अगर बाहर जाए, तो दुख में प्रवेश होगा। दोनों के बीच में खड़ा हो जाए, तो सिर्फ उदास हो जाएगा। न वहां दुख का कोई खिंचाव रहेगा, न वहां आनंद का कोई नृत्य रहेगा; सिर्फ एक उदास तटस्थता पैदा हो जाएगी।
लाओत्से कहता है, अगर ये तीन बीमारियां छोड़ दी जाएं, जो कि जरूरी हैं छोड़ देनी, तो फिर भीतर प्रवेश हो सकता है। लेकिन इन तीन को छोड़ कर कोई यह न समझे कि मंजिल आ गई। यह सिर्फ नकार हुआ, निषेध हुआ। जो गलत था, वह हमने छोड़ा। लेकिन अभी सही को नहीं पा लिया। गलत को छोड़ देना ही सही को पा लेना नहीं है। सही का पा लेना अलग ही आयाम है, एक अलग ही यात्रा है। लेकिन जो गलत को पकड़े हैं, वे सही को न पा सकेंगे; हालांकि जिन्होंने गलत को छोड़ दिया, उन्होंने सही को पा लिया, ऐसा भी समझने का कोई कारण नहीं है। गलत को पकड़ा हुआ आदमी तो सही पाएगा ही नहीं; वह तो छोड़ना जरूरी है। लेकिन गलत को छोड़ कर ही कोई अगर ठहर जाए, तो भी सही को नहीं पा सकेगा।
इस सत्र में लाओत्से जीवन की विधायकता, पाजिटिविटी, वह जो आंतरिक स्वास्थ्य है, उसे प्रकट करने की । बात करता है।
'लेकिन ये तीनों ही बाह्य और अपर्याप्त हैं; लोगों को संबल के लिए भी कुछ चाहिए।'
असल में, इन तीनों को लोग पकड़ते ही इसलिए हैं कि लोगों को संबल चाहिए, सहारा चाहिए। और जब हम उनके संबल छीनते हैं, तो उन्हें कठिनाई होती है। क्योंकि बिना सहारे के वे कैसे रहेंगे? एक आदमी ज्ञान इकट्ठा करने के लिए जी रहा है। ज्ञान इकट्ठा होता जाता है; और वह आदमी सोचता है, मैं बढ़ रहा हूं, विकसित हो रहा हूं, कुछ पा रहा हूं। यह उसका संबल है। एक आदमी मानवता, नीति, न्याय, धर्म के लिए जीता है, सेवा करता है। वह उसका संबल है। एक आदमी उपयोगिता के लिए, धन के लिए, यश के लिए, पद के लिए जीता रहता है; वह उसका संबल है। ये सारे लोग एक सहारे को लेकर जी रहे हैं।
और लाओत्से कहता है, तीनों को छोड़ दो। बेसहारा होने की बड़ी कठिनाई है। फिर हमें ऐसा लगेगा, फिर जीएं कैसे? फिर करें क्या? गलत छोड़ दिया, हाथ खाली हो जाते हैं। तो लाओत्से कहता है, इन खाली हाथों को किसी संबल की जरूरत है। लेकिन अगर वह संबल भी बाहर का हुआ, तो इन तीन जैसा ही होगा। वह संबल आंतरिक होना चाहिए। वह अपना ही होना चाहिए, निज का होना चाहिए।
इसलिए कहता है, 'इसके लिए तुम अपने सरल स्व को उदघाटित करो, अपने मूल स्वभाव का आलिंगन करो, अपनी स्वार्थपरता त्यागो, अपनी वासनाओं को क्षीण करो।'
इनमें से एक-एक हिस्से को हम समझेंः 'अपने सरल स्व को उदघाटित करो।'
जब बाहर से हाथ खाली हो गए हों और चेतना के लिए बाहर कोई विषय, कोई आब्जेक्ट न रह गया हो, तो चेतना की पूरी धारा स्व पर गिराई जा सकती है। जब आंखें बाहर न देखती हों, तो आंखों की देखने की पूरी क्षमता भीतर घुमाई जा सकती है। और जब प्राण बाहर कुछ पाने को आतुर न हों, तो प्राणों की सारी गत्यात्मकता, उनकी सारी ऊर्जा भीतर की यात्रा पर संलग्न की जा सकती है।
स्व के उदघाटन का अर्थ है : तुम्हारी सारी इंद्रियां जो अब तक बाहर की यात्रा पर थीं, तुम्हारा सारा मन जो अब तक किसी दूर की चीज को पाने के लिए लालायित था, तुम्हारा ध्यान जो अब तक स्वयं को छोड़ कर और सब चीजों के पीछे भागता था, उसे अब अपने पर ही नियोजित करो। इसे हम ऐसा समझें। अगर ये तीन चीजें छूट गई हों, तो ही इसे समझना और करना संभव हो पाएगा।
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