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________________ द्वैत की हम बात सुनते हैं : एक ही है सत्य। लेकिन फिर भी, अद्वैत की भी जो बात करते हैं, वे भी शरीर और आत्मा को दो हिस्सों में बांट कर चलते हैं। जो अद्वैत का विचार रखते हैं, वे भी अपने शरीर और अपनी आत्मा के बीच पृथकता मानते हैं। और जब शरीर और आत्मा में भेद होगा, तो जगत और परमात्मा में भेद अनिवार्य हो जाता है। भेद की जरा सी स्वीकृति द्वैत को निर्मित कर देती है। इसलिए एक बहुत विरोधाभासी स्थिति लोगों की है। अद्वैत को मानने वाला भी अपने जीवन में द्वैत को ही मान कर चलता है। लाओत्से इसमें अद्वैत की आधारशिला निर्मित कर रहा है। लाओत्से कहता है कि जगत और परमात्मा एक नहीं हो सकते, जब तक शरीर और आत्मा के बीच एक गहरा आलिंगन न हो। जब तक कि शरीर और आत्मा के बीच ऐक्य का अनुभव न हो, तब तक पदार्थ और चेतना के बीच भी एकता निर्मित नहीं हो सकती है। तथाकथित धार्मिक आदमी को बहुत कठिनाई मालूम पड़ेगी। लेकिन व्यक्ति अगर अपने ही भीतर विभाजित है, तो अस्तित्व को अविभाज्य नहीं मान सकेगा। अपने भीतर जो अविभाजित है, वही जगत को अविभाजित जान सकेगा। क्योंकि जगत फैला हुआ शरीर है और चेतना विराट परमात्मा है। अगर मेरी चेतना मेरे शरीर से भिन्न है, तो फिर परमात्मा की चेतना भी जगत के शरीर से भिन्न ही होगी। लाओत्से कहता है, यदि शरीर और आत्मा को एक रखा जा सके, तो ही अद्वैत की संभावना है, तो ही अद्वैत का फल खिल सकता है। लेकिन यह शरीर और आत्मा अलग कैसे हो जाते हैं, इसे हम समझ लें, तो शायद एक रखने की बात भी समझ में आ जाए। बच्चा जब पैदा होता है, तो उसे कोई भेद का पता नहीं होता। शरीर और चेतना में कोई भी रेखा भी भेद की नहीं होती। शरीर और चेतना एक ही अस्तित्व की तरह बड़े होते हैं। लेकिन जीवन की जरूरतें-सभ्यता, संस्कृति, सुरक्षा-शरीर और चेतना में भेद को निर्मित करना शुरू कर देती हैं। बच्चे को अगर भूख लगी है, तो भी हमें उसे सिखाना पड़ता है कि जब भूख लगी हो तभी भोजन मिले, यह जरूरी नहीं है; भूख को रोकना भी आवश्यक है। यह जीवन की अनिवार्य व्यवस्था है। जब नींद आ जाए तभी सोना भी मिल जाए, यह आवश्यक नहीं; और जब प्यास लगे तभी पानी भी मिल जाए, यह भी जरूरी नहीं। तो नियंत्रण रखना भी सीखना पड़ता है। और जैसे ही बच्चे को नियंत्रण की क्षमता आती है, वैसे ही उसे यह भी बोध हो जाता है कि मैं अलग हूं और शरीर अलग है। क्योंकि शरीर को भूख लगती है और मैं भूख को रोक लेता हूं। शरीर को नींद आती है और मैं नींद को रोक लेता हूं। मैं रोक सकता हूं जिसे, उससे अलग हो जाता हूं। तो जैसे-जैसे बच्चे में नियंत्रण, कंट्रोल विकसित होता है, वैसे-वैसे उसकी चेतना और शरीर में एक दरार पड़नी शुरू हो जाती है। वह दरार रोज-रोज बड़ी होती चली जाती है। वह दरार जितनी बड़ी हो जाती है, उतना ही
SR No.002372
Book TitleTao Upnishad Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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