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________________ ताओ उपनिषद भाग २ लेकिन यह तो हमारी समझ में भी आ जाए, भरे हुए हाथ में भी कुछ नहीं बचता! भरा हुआ हाथ भी खाली ही सिद्ध होता है। क्योंकि हमारे भीतर जो स्वभाव है, वह स्वभाव ही खाली है। हम उसे भर नहीं सकते। जैसे हम सूरज को अंधेरा नहीं कर सकते, उसका स्वभाव ही प्रकाश है। स्वभाव के विपरीत कुछ भी नहीं हो सकता। जो विपरीत करने की कोशिश करते हैं, वे असफल होंगे। असफल होंगे, विषाद से भरेंगे, दुख से भरेंगे, पीड़ा से भरेंगे। जो प्रतिकूल कोशिश करेंगे स्वभाव के, हारेंगे, अहंकार को घाव लगेगा, चोट लगेगी, अहंकार विजित होगा, आहत होगा, टूटेगा। सब बिखरेगा, प्राण संकट में पड़ेंगे। संत का अर्थ लाओत्से यह नहीं कहता कि जिन्होंने हार कर, कोई उपाय न देख कर हरि का नाम लिया; कोई उपाय न देख कर जिन्होंने कहा ठीक है, संतोष के लिए यही उचित है कि हम जैसे हैं, हैं। नहीं, लाओत्से यह नहीं कहता। लाओत्से यह कहता है कि संत जान लेते हैं कि यह स्वभाव है-विषाद से नहीं-तथाता से, स्वीकार से, अनुभव से। और स्वभाव के प्रतिकूल जाने का कोई अर्थ नहीं है, मूढ़ता है। यह कोई पराजय नहीं है; यह ज्ञान है। यह कोई विवश होकर अपने सूनेपन को स्वीकार नहीं किया है। अनुभव से, प्रौढ़ता से, विकास से, जीवन को जान कर पहचाना है कि भीतर जो आत्मा है, भीतर जो अस्तित्र है, रिक्त होना उसका स्वभाव है, रिक्तता उसका गुण है। और ध्यान रहे, रिक्तता ही असीम हो सकती है। भरी हुई कोई भी चीज असीम नहीं हो सकती। जहां कोई चीज भरेगी, वहीं सीमा आ जाएगी। और ध्यान रहे, रिक्तता ही स्वयं में प्रतिष्ठित हो सकती है। भराव तो सदा पराए से होता है। एक घड़ा खाली है। खाली घड़े का अर्थ है : घड़ा सिर्फ घड़ा है। और घड़ा भर गया, तो अब वह किसी और चीज से भरेगा-पानी से भरे, कि सोने से भरे, कि मिट्टी से भरे, कि पत्थर से, कि हीरे-जवाहरात से। घड़ा जब तक खाली है, तब तक घड़ा है। जब भरेगा, तो पानी से भरेगा, पत्थर से भरेगा, हीरे-जवाहरात से भरेगा-पराए से भरेगा। स्वयं अगर हमें होना है, तो खाली ही हो सकते हैं। भरे हुए होंगे, तो पराए से होंगे, दूसरे से होंगे। स्व का शुद्धतम रूप खाली ही होगा, क्योंकि स्वयं के अतिरिक्त वहां कुछ भी नहीं है। और जब भी हम भरेंगे, तो दूसरा मौजूद हो जाएगा। वही हमारी पीड़ा है। दूसरे से भरते हैं; मित्र से, प्रिय से, पत्नी से, प्रेमी से, धन से, पद से, किसी से भरते हैं। दूसरा वहां प्रवेश नहीं कर सकता; बाहर ही बाहर रह जाता है। दौड़ हो जाती है, थक जाते हैं, गिर पड़ते हैं, मुंह से लहू गिरने लगता है, मौत करीब आ जाती है; और पाते हैं कि भीतर सब खाली रह गया, वह भरा नहीं जा सका है। लाओत्से कहता है, संत अपने खालीपन में जीता है। वह दूसरे से अपने को नहीं भरता-पराए से, दि अदर, चाहे वह कोई भी हो, उससे अपने को नहीं भरता। _लाओत्से कहता है, संत तो ईश्वर से भी अपने को नहीं भरता; धर्म से भी अपने को नहीं भरता; पुण्य से भी अपने को नहीं भरता। खाली होना ही उसका धर्म है; खाली होना ही उसका पुण्य है; खाली होना ही उसका ईश्वर है। क्योंकि खाली होना ही ताओ है, नियम है। यह खालीपन हमें तो भयभीत करेगा। हम तो अकेले होने से भयभीत होते हैं। कोई दूसरा न हो, तो डर लगना शुरू हो जाता है। कोई दूसरा न हो, तो लगता है, जिंदगी बेकार हुई। दूसरा चाहिए ही। यह बहुत मजे की बात है कि हम में से कोई भी अपने साथ रहने को राजी नहीं। हम दूसरे के साथ रह सकते हैं; हम अपने साथ नहीं रह सकते। और बड़ा मजा यह है कि जो हम अपने साथ नहीं रह सकते, वे भी सोचते हैं कि दूसरे हमारे साथ रहें तो आनंदित हों। हम अपने साथ नहीं रह सकते अकेले में, आनंदित नहीं हो सकते अपने साथ, और आकांक्षा यह होती है कि दूसरे भी हमारे साथ रह कर हमसे आनंदित हों। और दूसरे की भी हालत यही है। वह भी अपने को बर्दाश्त नहीं कर सकता अकेले में। और हम आशा करते हैं कि हम उसके साथ होकर आनंदित होंगे। वह खुद अपने साथ आनंदित नहीं हो सका है। 226
SR No.002372
Book TitleTao Upnishad Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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