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जो भी सत्य को कहने चलेगा, उसे पहले ही कदम पर जो बड़ी से बड़ी कठिनाई खड़ी हो जाती है, वह यह कि शब्द में डालते ही सत्य असत्य हो जाता है। ऐसा हो जाता है, जैसा वह नहीं है। और जो कहना चाहा था, वह अनकहा रह जाता है। और जो नहीं कहना चाहा था, वह मुखर हो जाता है।
लाओत्से अपनी पहली पंक्ति में इसी बात से शुरू करता है।
ताओ बहुत अनूठा शब्द है। उसके अर्थ को थोड़ा खयाल में ले लें तो आगे बढ़ने में आसानी होगी। ताओ के बहुत अर्थ हैं। जो भी चीज जितनी गहरी होती है उतनी बहुअर्थी हो जाती है। और जब कोई चीज बहुआयामी, मल्टी डायमेंशनल होती है, तब स्वभावतः जटिलता और बढ़ जाती है।
ताओ का एक तो अर्थ है: पथ, मार्ग, दि वे। लेकिन सभी पथ बंधे हुए होते हैं। ताओ ऐसा पथ है जैसे पक्षी आकाश में उड़ता है; उड़ता है तब पथ तो निर्मित होता है, लेकिन बंधा हुआ निर्मित नहीं होता है। सभी पथों पर चरणचिहन बन जाते हैं और पीछे से आने वालों के लिए सुविधा हो जाती है। ताओ ऐसा पथ है जैसे आकाश में पक्षी उड़ते हैं, उनके पदों के कोई चिह्न नहीं बनते, और पीछे से आने वाले को कोई भी सुविधा नहीं होती।
तो अगर यह खयाल में रहे कि ऐसा पथ जो बंधा हुआ नहीं है, ऐसा पथ जिस पर चरणचिह्न नहीं बनते, ऐसा पथ जिसे कोई दूसरा आपके लिए निर्मित नहीं कर सकता-आप ही चलते हैं और पथ निर्मित होता है-तो हम ताओ का अर्थ पथ भी कर सकते हैं, दि वे भी कर सकते हैं। लेकिन ऐसा पथ तो कहीं दिखाई नहीं पड़ता। इसलिए ताओ को पथ कहना उचित होगा?
लेकिन यह एक आयाम ताओ का है। तब पथ का एक दूसरा अर्थ लें: पथ है वह, जिससे पहुंचा जा सके; पथ है वह, जो मंजिल से जोड़ दे। लेकिन ताओ ऐसा पथ भी नहीं है। जब हम एक रास्ते पर चलते हैं और मंजिल पर पहुंच जाते हैं, तो रास्ता और मंजिल दोनों जुड़े हुए होते हैं। असल में, मंजिल रास्ते का आखिरी छोर होता है, और रास्ता मंजिल की शुरुआत होती है। रास्ता और मंजिल दो चीजें नहीं हैं, जुड़े हुए संयुक्त हैं। रास्ते के बिना मंजिल न हो सकेगी; मंजिल के बिना रास्ता न होगा। लेकिन ताओ एक ऐसा पथ है, जो मंजिल से जुड़ा हुआ नहीं है। जब कोई रास्ता मंजिल से जुड़ा होता है, तो सभी को उतना ही रास्ता चलना पड़ता है, तभी मंजिल आती है।
ताओ ऐसा पथ है कि जो जहां खड़ा है, उसी स्थान पर, उसी जगह पर खड़े हुए मंजिल को उपलब्ध हो सकता है। इसलिए ताओ को ऐसा पथ भी नहीं कहा जा सकता। जहां खड़े हैं हम, जिस जगह, जिस स्थान पर, वहीं से मंजिल मिल सके; और ऐसा भी हो सकता है कि हम जन्मों-जन्मों चलें, और मंजिल न मिल सके; तो ताओ जरूर किसी और तरह का पथ है। इसलिए एक तो पथ का अर्थ है कहीं गहरे में, लेकिन बहुत सी शर्तों के साथ।
दूसरा ताओ का अर्थ है: धर्म। लेकिन धर्म का अर्थ मजहब नहीं है, रिलीजन नहीं है। धर्म का वही अर्थ है जो पुरातनतम ऋषियों ने लिया है। धर्म का अर्थ होता है: वह नियम, जो सभी को धारण किए हुए है। जीवन जहां भी है, उसे धारण करने वाला जो आत्यंतिक नियम, दि अल्टिमेट लॉ, वह जो आखिरी कानून है वह। तो ताओ धर्म है-मजहब के अर्थों में नहीं, इसलाम और हिंदू और जैन और बौद्ध और सिक्ख के अर्थों में नहीं-जीवन का परम नियम। धर्म है, जीवन के शाश्वत नियम के अर्थ में।
लेकिन सभी नियम सीमित होते हैं। ताओ ऐसा नियम है जिसकी कोई सीमा नहीं है।
असल में सीमा तो होती है मृत्यु की; जीवन की कोई सीमा नहीं होती। मरी हुई वस्तुएं ही सीमित होती हैं; जीवित वस्तु सीमित नहीं होती, असीम होती है। जीवन का अर्थ ही है: फैलाव की निरंतर क्षमता, दि कैपेसिटी टु एक्सपैंड। एक बीज जीवित है, अगर वह अंकुर हो सकता है। एक अंकुर जीवित है, अगर वह वृक्ष हो सकता है। एक वृक्ष जीवित है, अगर उसमें और अंकुर, और बीज लग सकते हैं। जहां फैलाव की क्षमता रुक जाती है वहीं जीवन रुक जाता है। बच्चा इसीलिए ज्यादा जीवित है बूढ़े से; अभी फैलाव की क्षमता है बहुत।
तो ताओ कोई सीमित अर्थों में नियम नहीं है। आदमी के बनाए हुए कानून जैसा कानून नहीं है, जिसको कि डिफाइन किया जा सके, जिसकी परिभाषा तय की जा सके, जिसकी परिसीमा तय की जा सके। ताओ ऐसा नियम है जो अनंत विस्तार है, और अनंत-असीम को छने में समर्थ है।
इसलिए सिर्फ धर्म कह देने से काम न चलेगा।
एक और शब्द है-ऋषियों ने उपयोग किया-वह शायद और भी निकट है ताओ के। वह शब्द है ऋत-जिससे ऋतु बना। वेद ऋत की चर्चा करते हैं, वह ताओ की चर्चा है। ऋत का अर्थ होता है...ऋतुओं से समझें तो आसानी हो जाएगी।
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