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लेकिन आदमी अदभुत है। वह पकड़ता अहंकार को है और पाना चाहता है आनंद। तब लाओत्से कहता है, तुम गलत बात कर रहे हो। एक आदमी को मरना है, तो जहर पी ले। जहर भी प्रकृति से ही पैदा होता है। लेकिन वह आदमी कहे कि जहर प्रकृति से पैदा होता है, जहर तो मैं पीऊंगा, क्योंकि प्रकृति से पैदा होता है; लेकिन मरना मैं नहीं चाहता। तब फिर वह कठिनाई में पड़ेगा।
लाओत्से कहता है, मरना हो, तो मजे से जहर पी लो और मर जाओ। न मरना हो, तो फिर जहर मत पीओ। मरने की घटना भी प्राकृतिक है, जहर का पीना भी प्राकृतिक है। लेकिन निर्णय तुम्हारे हाथ में है कि तुम मरना चाहते हो कि नहीं मरना चाहते।
अहंकार प्राकृतिक है। लेकिन उसकी पीड़ा, उसके नर्क को भोगना हो, तो आदमी भोग सकता है। न भोगना हो, न भोगे। आदमी के हाथ में है कि वह अहंकार के प्राकृतिक बीज को वृक्ष बनाए या न बनाए। लाओत्से नहीं कहता कि अहंकार को हटा दो। वह आपसे कहता है कि अगर दुख न चाहते हो, तो अहंकार से हटना होगा। अगर दुख चाहते हैं, तो अहंकार को और बढ़ाओ। हम उलटे हैं। हम चाहते वह हैं जो अहंकार से नहीं मिलेगा और अहंकार को भी नहीं हटाना चाहते हैं। इस दुविधा में हमारे प्राण संतापग्रस्त हो जाते हैं।
एक दूसरे मित्र ने पूछा है कि सदा ही साधकों ने ऊर्ध्वगमन की बात कही है, ऊपर जाने की। और लाओत्से नीचे जाने की बात करता
लाओत्से नीचे जाने की बात इसीलिए करता है कि नीचे जाए बिना कोई ऊपर नहीं जाता। जिन्होंने ऊपर जाने की बात कही है, उन्होंने लक्ष्य की बात कही है, साध्य की। और लाओत्से नीचे जाने की बात करके साधन की बात कर रहा है। ऊपर जाना हो, तो नीचे जाना पड़ेगा। यह उलटा दिखता है। नीत्से ने लिखा है कहीं कि जिस वृक्ष को बहुत ऊपर जाना हो, उसको अपनी जड? नीचे जमीन में गहरे पहुंचानी पड़ती हैं। जिस वृक्ष को आकाश में जितना ऊंचा उठना हो, उसे पाताल की तरफ अपनी जड़ों को उतना ही गहरा पहुंचाना पड़ता है। अब वृक्ष से हम दो बातें कह सकते हैं। हम कह सकते हैं कि तुझे ऊपर जाना है, तो जड़ों को नीचे फैला! हम उसे यह भी कह सकते हैं कि तू जड़ों को नीचे फैला, ऊपर जाने की घटना घट जाएगी। लेकिन अगर कोई वृक्ष ऊपर ही जाने की कोशिश में लग जाए और नीचे जाने की कोशिश बंद कर दे, जड़ों को नीचे जाने की कोशिश बंद कर दे, तो ऊपर तो जा ही नहीं पाएगा। कोई उपाय नहीं ऊपर जाने का।
लाओत्से कहता है, ऊपर जाना हो, तो नीचे जाने की व्यवस्था तुम्हें करनी पड़ेगी। ऊपर को तुम भूल ही जाओ। वह प्रकृति के ऊपर छोड़ दो। तुम सिर्फ अपनी जड़ों को नीचे पहुंचा दो। प्रकृति तुम्हारे फूलों को आकाश में खिला देगी। उसकी तुम्हें चिंता भी करने की जरूरत नहीं; क्योंकि उतनी चिंता करने से भी तुम्हारी जड़ें कमजोर रह जाएंगी। तुम अपनी सारी चिंता ही जड़ों पर लगा दो; फूल अपने आप खिल जाएंगे। जहां जड़ें होती हैं, वहां फूल खिल ही जाते हैं। जड़ें जितनी मजबूत हों, उतने ही बड़े फूल खिल जाते हैं।
लाओत्से कहता है, अंतिम जगह खोज लो, जैसे पानी अंतिम जगह खोज लेता है। और तुम्हारे शिखर तुम्हारे पास चले आएंगे। तुम झील बन जाओ, और तुम गौरीशंकर बने हुए पाओगे अपने को। तुम गौरीशंकर होने की फिक्र ही छोड़ दो। क्योंकि लाओत्से कहता है, नियम ऐसा है, जो ऊपर पहुंचना चाहता है, वह नीचे पहुंचा दिया जाता है; और जो नीचे पहुंचने को राजी हो जाता है, उसकी ऊंचाई के लिए कोई प्रतिस्पर्धा नहीं होती।
नियम उसका समझ लें। कठिनाई क्या है कि कुछ नियम जो विपरीत होते हैं, हमारी समझ में नहीं आते। क्योंकि हम स्ट्रेट लॉजिक में भरोसा करते रहे हैं। वही पुरुष का चित्त है। सीधे तर्क में हमारा भरोसा है। हमें पता नहीं कि जिंदगी सीधे तर्क नहीं मानती। जिंदगी उलटे तर्क मानती है। हमारा भरोसा सीधे तर्क में है। हम ऐसे चलते हैं, जैसे कोई आदमी एक हाई-वे पर चलता है। सीधा रास्ता है। लेकिन जिंदगी पर कोई हाई-वे नहीं होते। जिंदगी पहाड़ पर चढ़ने वाले रास्तों जैसी है। सब गोल घुमावदार रास्ते होते हैं। अभी मैं जिस रास्ते पर खड़ा हूं पहाड़ के, ऐसा लगता है कि अगर इस पर सीधा चला जाऊं, तो चांद पर पहुंच जाऊंगा। चांद सामने दिखाई पड़ रहा है। लेकिन दो घड़ी बाद पता चलता है, रास्ता घूम गया और चांद की तरफ पीठ हो गई। जिंदगी गोल रास्ते हैं, घुमावदार रास्ते हैं। उसमें कोई चीज सीधी नहीं है। और हम सब सीधे होते हैं।
जैसे उदाहरण के लिए, अगर कोई आपसे कहे कि मैं सुबह घूमने जाता हूं और मुझे बहुत आनंद मिलता है, तो आप कहें, आनंद तो मैं भी चाहता हूं, तो मैं भी कल सुबह से घूमने जाऊंगा।
अगर आप आनंद पाने ही घूमने गए, तो आप सिर्फ थक कर वापस लौटेंगे, आनंद आपको मिलेगा ही नहीं। क्योंकि पूरे वक्त, एक-एक कदम चल कर आप नजर रखेंगे कि अभी तक आनंद मिला नहीं! अभी तक मिला नहीं! पता नहीं कब मिलेगा? दो मील हो गए चलते हुए, अब तक आनंद मिला नहीं! आपका ध्यान आनंद मिलने पर रहेगा, चलने पर नहीं। चलना तो जबरदस्ती रहेगा। जल्दी आनंद मिल जाए, तो घर वापस लौट जाएं। चलना तो एक मजबूरी रहेगी। अगर आनंद घर ही बैठे मिलता, तो आप न चले होते। चले हैं आप इसलिए कि किसी ने कहा कि आनंद चलने से मिलेगा। आप लौट कर कहेंगे कि गलत बात कही है। आनंद चलने से मुझे जरा भी नहीं मिला। चार मील भटक कर आ गया हं, आनंद की कोई खबर नहीं है।
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