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________________ Download More Osho Books in Hindi Download Hindi PDF Books For Free मूत्र का त्याग कहां करिएगा? उसके प्रति घृणा आपको बतानी पड़ेगी। जैसे हर घर में हमें गुसलखाने का इंतजाम करना पड़ता है, हर मन में घृणा का भी इंतजाम करना पड़ता है। वहां कचरा इकट्ठा हो जाता है; फिर वह कहां निकलेगा? इसलिए पति और पत्नी में ही डायवोर्स नहीं होते, गुरु और शिष्य में भी डायवोर्स चलते हैं। कोई खयाल नहीं लेता उसका, लेकिन चलते हैं। चलेंगे ही। मित्र और मित्र में भी चलते हैं। बाप और बेटे में चलते हैं। चलेंगे ही। क्योंकि जिसके प्रति हमने प्रेम दिखाया, हम उसके लिए बिना गुसलखाने के हो गए। हमारा पूरा घर बैठकखाना हो गया उसके लिए । गुसलखाना कहां जाएगा? उसे हमें छिपा कर रखना पड़ेगा। धीरे-धीरे बैठकखाना छोटा होता जाएगा, गुसलखाना बड़ा होगा; क्योंकि बढ़ता जाएगा, बढ़ता जाएगा। एक दिन बैठकखाना बिलकुल सिकुड़ जाएगा और सारे घर में मल-मूत्र फैल जाएगा। यह होगा, यह मन के द्वंद्व के साथ अनिवार्य है। लाओत्से कहता है, वे संत द्वंद्व में नहीं जीते। वे न किसी को प्रेम करते हैं, और इसलिए ही वे किसी को घृणा नहीं करते । इसे ठीक से समझ लें। हमारा तर्क और है। हम कहते हैं, चूंकि मैं आपको प्रेम करता हूं, इसलिए आपको घृणा नहीं करता। यह तर्क बिलकुल ही गलत है। जब भी कोई आपसे कहे कि मैं आपको प्रेम करता हूं, तब दूसरा हिस्सा जो वह छोड़ रहा है वह यह कि इसलिए मैं आपको घृणा करूंगा। वह दूसरा हिस्सा अनिवार्य तर्क है। लेकिन उसे हम छिपा जाते हैं। फिर उसका फल भोगना पड़ता है। लाओत्से कहता है, वे किसी को प्रेम नहीं करते, क्योंकि वे किसी को घृणा नहीं करते। वे किसी पर दया नहीं करते, क्योंकि वे किसी के प्रति क्रूर और कठोर नहीं हैं। वे किसी को कभी क्षमा नहीं करते, क्योंकि वे कभी क्रोध नहीं करते हैं। इस द्वंद्व को ठीक से समझ लें। ये एक ही सिक्के के दो पहलू साथ ही साथ चलते हैं, चाहे आप एक पहलू को छिपा लें। कितनी देर छिपाइएगा? फिर बोरडम पैदा होती है। जिसको छिपाते हैं, उसे देखने की जिज्ञासा जगती है। और जिसे बहुत देखते हैं, उससे हटने का मन होता है। फिर पहलू बदलना पड़ता है। प्रेमी का अनिवार्य परिणाम यही है कि वह घृणा से भर जाए और मित्रता अगर पक्की है, तो शत्रुता पैदा होगी । पक्की है तो । कच्ची है, तो चल सकती है। इसलिए मेरे पास बहुत लोग आते हैं, वे कहते हैं, फलां व्यक्ति आपको इतना प्रेम करता था, इतनी श्रद्धा करता था, वह आपके खिलाफ क्यों हो गया? मैं कहता हूं, इसीलिए। यह उनके खयाल में नहीं आता इसीलिए; क्योंकि वे तो यह खयाल लेकर आए हैं कि जो इतना प्रेम करता था, उसे तो खिलाफ होना ही नहीं चाहिए। और मैं तो इतना प्रेम आपको नहीं भी करता हूं, वह मुझे कहता है, मैं खिलाफ नहीं हुआ। तो मैं कहता हूं, इसीलिए । यह इसीलिए को ठीक से देख लें तो लाओत्से समझ में आ जाएगा। वह कहता है, संत द्वंद्व के बाहर हैं। इसलिए अगर आप समझते हैं कि महावीर आप पर दया करते हैं, यह आपकी ही समझ है। इसमें महावीर कहीं भी जिम्मेवार नहीं हैं। और अगर आप समझते हैं, महावीर की आंख आप पर तेज है और कठोर है, यह आपकी ही समझ, आपका इंटरप्रिटेशन, आपकी व्याख्या है; महावीर का इससे कुछ लेना-देना नहीं है। संत द्वंद्व में अपने को विभाजित नहीं करता । लेकिन यह लाओत्से कहता है, “वे भी सभी मनुष्यों के साथ ऐसा व्यवहार करते हैं, जैसे घास निर्मित कुत्तों के साथ किया जाता है।' संत और लोगों के साथ ऐसा व्यवहार, जैसे घास निर्मित कुत्तों के साथ ! संत तो सब के भीतर परमात्मा देखता है। संत और किसी के भीतर घास-निर्मित कुत्ते को देखेगा ! घास निर्मित कुत्ते में भी उसको घास निर्मित कुता नहीं देखना चाहिए। कुत्ते में भी उसको परमात्मा ही दिखाई पड़ता है, ऐसा हमने सुना है। लाओत्से क्या कह रहा है? यह बिलकुल उलटी बात कह रहा है। लेकिन यह उलटी बात नहीं है। यह उसी बात का दूसरा हिस्सा है। जो आदमी सब में परमात्मा देखता है, वह आप में घास निर्मित कुत्ता देखेगा। इसे थोड़ा समझ लें। आप में जो आदमी सब में परमात्मा देखता है, वह आप में घास निर्मित कुत्ता देखेगा - आप में कह रहा हूं। अस्तित्व में तो उसे परमात्मा ही दिखाई पड़ता है। लेकिन आप अस्तित्व नहीं हो, सिर्फ घास निर्मित एक गठरी, एक गांठ, एक कांप्लेक्शन हो! आप आदमी नहीं हो। आप सिर्फ एक गांठ हो बीमारियों की और आदमी तो गांठ के पीछे छिपा है। जब संत कहते हैं उन्हें सब में परमात्मा दिखाई पड़ता है, तो वे गांठ को बाद देकर कह रहे हैं, आपको हटा कर कह रहे हैं। आपसे नहीं कह रहे हैं। आपके पार जो बैठा है, जिससे आपकी कोई मुलाकात नहीं हुई कभी, उससे कह रहे हैं। सुनते हो आप समझते हो, आपसे कही गई बात। आप सिर्फ गांठ हो बीमारियों की; एक ग्रंथि ! उस ग्रंथि को संत घास निर्मित कुत्ते की तरह ही देखते हैं। वह ग्रंथि है हमारा अहंकार | वही हम हैं। उसी से लगता है, मैं हूं। उसे वे इससे ज्यादा मूल्य नहीं देते। लेकिन वह अहंकार बड़े रास्ते खोजता है कि कहीं से मूल्य मिल जाए। वह संतों के चरणों में जा सकता है और बाहर अकड़ कर निकल सकता है कि संत के चरणों तक पहुंचने का मुझे मौका मिला मुझे ! जब दूसरे पीछे खड़े रह गए थे, तब भी मैं चरणों तक पहुंच गया ! और जब संत ने दूसरों की तरफ देखा भी नहीं, तब मेरी तरफ देखे कैसी उनकी प्यार से भरी आंख थी ! यह आंख किसी भी दिन पत्थर की हो जाएगी। यह आंख आपका निर्माण है। इस पुस्तक का श्रेय जाता है रामेन्द्र जी को जिन्होंने आर्थिक रूप से हमारी सहायता की, आप भी हमारी सहायता कर सकते हैं देखें आखिरी पेज
SR No.002371
Book TitleTao Upnishad Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year
Total Pages285
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, K000, & K999
File Size4 MB
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