SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 170
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Download More Osho Books in Hindi Download Hindi PDF Books For Free तो पहली बात तो यह है कि देखें कि चौबीस घंटे में कितनी चोटें आप अपने चारों तरफ फैला रहे हैं-बोल कर, न बोल कर, उठ कर, बैठ कर, इशारे से, आंख से, मुस्कुरा कर, ओंठ से-कितनी चोटें आप अपने चारों तरफ फैला रहे हैं! अकारण भी! तब आपको लगेगा कि यह आपका स्वभाव है। मुल्ला नसरुद्दीन एक रास्ते से गुजर रहा है। एक आदमी केले के छिलके पर फिसल पड़ा और गिर पड़ा। नसरुद्दीन खिलखिला कर हंसा। हंसने में भूल गया और उसका पैर भी दूसरे छिलके पर पड़ा और वह भी गिर पड़ा। गिर कर उठ कर खड़ा हुआ और उसने कहा, परमात्मा, तेरा धन्यवाद! अगर हम पहले ही न हंस लिए होते, तो हंसने का मौका ही न मिलता। अगर हम पहले ही न हंस लिए होते, एक-दो क्षण चूक गए होते, तो चूक गए थे। क्योंकि अब तो दूसरे हंस रहे हैं, अब तो कोई अपने हंसने की बात न रही। हम सब जब दूसरे पर हंस रहे हैं, तब हमें खयाल नहीं है; जब हम दूसरे पर क्रोधित हो रहे हैं, तब भी खयाल नहीं है; जब हम दूसरे की निंदा कर रहे हैं, तब भी हमें खयाल नहीं है कि हम क्या कर रहे हैं। थोड़ी ही देर में हम उस जगह हो जा सकते हैं। लेकिन नसरुद्दीन तो आदमी के प्राणों से बोलता है। वह यह कह रहा है कि अच्छा ही किया कि हंस लिए, नहीं तो फिर मौका ही न मिलता। वह खुश है। वह पूरी आदमियत का व्यंग्य है; वह जैसे हम सब का सार-निचोड़ है। एक-एक इशारे को जांचना पड़ेगा कि उसमें धार तो नहीं है? जहर तो नहीं है? आप किसी को चुभते तो नहीं हैं, चुभते तो नहीं चले जाते हैं? आप दूसरे को चुभें, इसमें रस तो नहीं लेते? सुखद तो नहीं मालूम होता? डामिनेट करें किसी की, मालकियत करें किसी की, किसी के ऊपर कब्जा दिखाएं, किसी को आज्ञा दें, इसमें रस तो नहीं आता? नसरुद्दीन अपने बेटे पर नाराज है। और वह बेटा बहुत खड़े होकर शोरगल कर रहा है। वह उससे कहता है, बैठ जा बदमाश! वह लड़का है नसरुद्दीन का, वह कहता है, नहीं बैठते! तो नसरुद्दीन कहता है, खड़ा रह, लेकिन आज्ञा मेरी माननी ही पड़ेगी। या तो बैठ या खडा रह. लेकिन आज्ञा मेरी माननी ही पड़ेगी। मेरी आज्ञा से तु नहीं बच सकता। हमारा मन पूरे समय इस कोशिश में है कि हम किसी को दबा पाएं। क्यों? क्योंकि जब हम किसी को दबाते हैं, तभी हमको लगता है कि हम कुछ हैं। हमें पता ही नहीं चलता अपने होने का तब तक, जब तक हम किसी को दबाते नहीं हैं। तो मेरी मुट्ठी में जितने लोगों की गर्दन हो, तो उतना ही मैं बड़ा आदमी हो जाता हूं। बड़े आदमी का और कोई नापने का हिसाब नहीं है। कितने आदमियों की गर्दन उस आदमी के हाथ में है? अगर वह जोर से मुट्ठी कस दे, तो कितने लोगों की गर्दन दब जाएगी? हम सब इस कोशिश में हैं कि कितनी गर्दनें हमारे हाथ में हो जाएं। और ऐसा नहीं कि दुश्मन ही गर्दन हाथ में डालता है; जिनको हम मित्र कहते हैं, वे भी गर्दन पर हाथ कसे रहते हैं। एक बार दुश्मन का हाथ तो दूर भी होता है, मित्र का हाथ बिलकुल गर्दन पर होता है। जिनको हम संबंधी कहते हैं, वे भी एक-दूसरे की गर्दन पर हाथ कसे रहते हैं। वे भी जांच-पड़ताल करते रहते हैं कि गर्दन दूर तो नहीं कर रहे हो! जरा गर्दन दूर हुई तो चिंता शुरू हो जाती है कि कहीं मेरे हाथ से बाहर तो नहीं हो जाएगा! ये सब हमारी नोकें हैं। यह हमारी हिंसा है। लाओत्से कहता है, इनकी तेज नोकों को घिस डालें। अगर शून्य की तरफ जाना है, तो ये सब नोकें घिस डालें, ये गिरा दें, ये हटा दें। लेकिन कौन हटा पाएगा नोकों को? नोकों को वही हटा पाएगा, जो इनसिक्योरिटी में रहने को राजी है, जो असुरक्षा में रहने को राजी है। दरवाजे पर हम एक बंदूक रखे हुए आदमी को खड़ा करते हैं, इसलिए कि सुरक्षा चाहिए। वह जो बंदूक पर लगी हुई संगीन है, वह जो हाथ में तलवार लिए हुए खड़ा हुआ पहरेदार है, वह ऐसे ही नहीं खड़ा है। वह सुरक्षा के लिए है। सूक्ष्म रूप में हम अपने व्यक्तित्व के चारों तरफ नोके रख लेते हैं। मैं एक मित्र के घर में कोई आठ साल तक रहता था। मैं बहुत हैरान हुआ। वह आदमी बहुत भले थे। मुझे जब भी मिलते, बड़े प्रेम से मिलते। जब भी मिलते, उनके चेहरे पर मुस्कुराहट होती। लेकिन न तो मैंने उनको पत्नी के सामने उनकी मुस्कुराते देखा, न उनके बेटे के सामने मुस्कुराते देखा, न उनके नौकरों के सामने मैंने उन्हें कभी मुस्कुराते देखा। मैं थोड़े दिन में चिंतित हुआ। जब वह अपने नौकरों के सामने निकलते, तो उनकी चाल देखने जैसी होती थी। वह ऐसे जाते थे, जैसे कोई है ही नहीं आस-पास। मैंने उनसे पूछा कि बात क्या है? उन्होंने कहा कि सजग रहना पड़ता है। अगर नौकर के सामने मुस्कुराओ, कल ही वह कहता है तनख्वाह बढ़ाओ; पत्नी के सामने मुस्कुराए कि झंझट में पड़े, कि वह कहती है एक साड़ी आ गई। चेहरे को सख्त रखना पड़ता है, पहरे पर रहना पड़ता है। उन्होंने कहा कि मुस्कुरा कर मैं बहुत नुकसान उठा चुका हूं। जब मुस्कुराए, तभी झंझट खड़ी हो जाती है। बेटा भी देख ले कि बाप मुस्कुरा रहा है, तो उसका हाथ जेब में चला जाता है। तो उन्होंने कहा, मैंने तो एक पूरा चेहरा बना रखा है सख्ती का। यह मजबूरी है, इसमें बहुत कष्ट होता है, लेकिन यह सुरक्षा है। बेटा पास आने में डरता है; कमरे में बैठे होते हैं, तो नौकर नहीं गुजरता; किसी की हिम्मत नहीं है कि उनके सामने कोई खड़ा हो जाए। इस पुस्तक का श्रेय जाता है रामेन्द्र जी को जिन्होंने आर्थिक रूप से हमारी सहायता की, आप भी हमारी सहायता कर सकते हैं -देखें आखिरी पेज
SR No.002371
Book TitleTao Upnishad Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year
Total Pages285
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, K000, & K999
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy