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________________ Download More Osho Books in Hindi Download Hindi PDF Books For Free असल में, जो इनकार करके भी इनकार नहीं किया जा सकता-वही है। जिसे हम इनकार कर दें और इनकार हो जाए, उसकी क्या सत्ता है! आदमी के हां कहने पर जिसका होना निर्भर है, आदमी के न कहने पर जिसका न होना निर्भर है, उसका भी कोई मूल्य है? आस्तिक कहता है, है; और सोचता है कि ईश्वर उसके है कहने से कुछ बलवान होता होगा। नास्तिक कहता है, नहीं है; और सोचता है कि शायद नहीं कहने से ईश्वर कमजोर होता होगा। और ऐसा नास्तिक ही नहीं सोचता; आस्तिक भी सोचता है कि किसी ने अगर कहा, नहीं है, तो बड़ा नुकसान पहुंचाता है। और ऐसा आस्तिक ही नहीं सोचता; नास्तिक भी सोचता है कि किसी ने कहा, है, तो जाओ खंडन करो कि नहीं है; क्योंकि बड़ा नुकसान पहुंचाता है। आदमी के हां और न कहने से...। एक बहुत पुरानी तिब्बतन कथा है कि एक छोटा सा मच्छर था। आदमी ने लिखी, इसलिए छोटा सा लिखा है। मच्छर बहुत बड़ा था, मच्छरों में बड़े से बड़ा मच्छर था। कहना चाहिए, मच्छरों में राजा था, सम्राट था। कोई मच्छर गोबर के टीले पर रहता था, कोई मच्छर वृक्ष के ऊपर रहता था, कोई मच्छर कहीं। राजा कहां रहे, बड़ी चिंता मच्छरों में फैली। फिर एक हाथी का कान खोजा गया। और मच्छरों ने कहा कि महल तो यही है आपके रहने के योग्य। मच्छर जाकर दरवाजे पर खड़ा हुआ, हाथी के कान पर। महान विशालकाय दरवाजा था-हाथी-द्वार। मच्छर ने दरवाजे पर खड़े होकर कहा कि सुन ऐ हाथी, मैं मच्छरों का राजा, फला-फलां मेरा नाम, आज से तुझ पर कृपा करता हूं, और तेरे कान को अपना निवासस्थान बनाता है। जैसा कि रिवाज था, मच्छर ने तीन बार घोषणा की। क्योंकि यह उचित नहीं था कि किसी के भीतर निवास बनाया जाए और खबर न की जाए। हाथी खड़ा सुनता रहा। मच्छर ने सोचा, ठीक है-मौनं सम्मति लक्षणम्। वह सम्मति देता है, मौन है। फिर मच्छर वर्षों तक रहता था, आता था, जाता था। उसके बच्चे, संतति और बड़ा विस्तार हुआ, बड़ा परिवार वहां रहने लगा। फिर भी जगह बहुत थी। मेहमान भी आते, और भी लोग रुकते। बहुत काफी था। फिर और कोई जगह सम्राट के लिए खोज ली गई और मच्छरों ने कहा कि अब आप चलें, हम और बड़ा महल खोज लिए हैं। तो मच्छर ने फिर दरवाजे पर खड़े होकर कहा कि ऐ हाथी सुन, अब मच्छरों का सम्राट, फला-फलां मेरा नाम है, अब मैं जा रहा हूं। हमने तुझ पर कृपा की। तेरे कान को महल बनाया। कोई आवाज न आई। मच्छर ने सोचा, क्या अब भी मौन को सम्मति का लक्षण मानना पड़ेगा? अब भी? यह जरा दुखद मालूम पड़ा कि ठीक है, जाओ, कुछ मतलब नहीं। वह हां भी नहीं भर रहा है, न भी नहीं भर रहा है। उसने और जोर से चिल्ला कर कहा, लेकिन फिर भी कुछ पता न चला। उसने और जोर से चिल्ला कर कहा। हाथी को धीमी सी आवाज सुनाई पड़ी कि कुछ...। हाथी ने गौर से सुना, तो सुनाई पड़ा कि एक मच्छर कह रहा है कि मैं सम्राट मच्छरों का, मैं जा रहा हूं, तुझ पर मेरी कृपा थी, इतने दिन तेरे कान में निवास किया। क्या तुझे मेरी आवाज सुनाई नहीं पड़ती है? हाथी ने कहा, महानुभाव, आप कब आए, मुझे पता नहीं। आप कितने दिन से रह रहे हैं, मुझे पता नहीं। आप आइए, रहिए, जाइए, जो आपको करना हो, करिए। मुझे कुछ भी पता नहीं है। तिब्बतन फकीर इस कथा को किसी अर्थ से कहते हैं। आदमी आता है। दर्शन, फिलासफी, धर्म, मार्ग, पथ, सत्य, सिद्धांत, शब्द निर्मित करता है। चिल्ला-चिल्ला कर कहता है इस अस्तित्व के चारों तरफ कि सुनो, राम है उसका नाम! कि सुनो, कृष्ण है उसका नाम! आकाश चुप है। उस अनंत को कहीं कोई खबर नहीं मिलती। हाथी ने तो मच्छर को आखिरी में सुन भी लिया, क्योंकि हाथी और मच्छर में कितना ही फर्क हो, कोई क्वालिटेटिव फर्क नहीं है। क्वांटिटी का फर्क है; मात्रा ही का फर्क है। हाथी जरा बड़ा मच्छर है, मच्छर जरा छोटा हाथी है। कोई ऐसा गुणात्मक भेद नहीं है कि दोनों के बीच चर्चा न हो सके। हो सकती है, थोड़ी कठिनाई पड़ेगी। मच्छर को बहुत जोर से बोलना पड़ेगा, हाथी को बहुत गौर से सुनना पड़ेगा। लेकिन घटना घट सकती है, असंभव नहीं है। लेकिन अस्तित्व और मनुष्य के मन के बीच कोई इतना भी संबंध नहीं है। न हम आते हैं, तब उसे पता चलता है कि हमने बैंड-बाजे बजा कर घोषणा कर दी है कि मेरा जन्म हो रहा है। न हम मरते हैं, तब उसे पता चलता है। हम आते हैं और चले जाते हैं। पानी पर खींची रेखा की भांति बनते हैं और मिट जाते हैं। लेकिन इस थोड़ी सी देर में, जब कि रेखा बनने और मिटने के बीच में थोड़ी देर बचती है, उतनी थोड़ी देर में हम न मालूम कितने शब्द निर्मित करते हैं। उस बीच हम न मालूम कितने सिद्धांत निर्मित करते हैं। उस बीच हम न मालूम कितने शास्त्र बनाते हैं, संप्रदाय बनाते हैं। उस बीच हम मन का पूरा जाल फैला देते हैं। लाओत्से उस जाल को काटेगा। नेति-नेति उसके कहने का ढंग है। असल में, जिनको परम के संबंध में कुछ कहना हो, परम के संबंध में कुछ कहना हो, तो उन्हें कहना ही पड़ेगा कि उस संबंध में कुछ नहीं कहा जा सकता। और फिर कहने की कोशिश करनी पड़ेगी। और वह कोशिश यही होगी कि यह नहीं है, यह नहीं है। वह पथ, जिस पर विचरण किया जा सके, नहीं, वह नहीं है। वह शब्द, जिसका स्मरण किया जा सके, नहीं, वह नहीं है। और आप भाषा की भूल में मत पड़ जाना। क्योंकि जिसका स्मरण किया जा सके, वही है नाम; और तो कोई नाम हम बोल नहीं सकते। और जिस पर विचरण किया जा सके, उसी को तो हम पथ कहते हैं; और किसी पथ को तो हम जानते नहीं हैं। अगर इसको बिलकुल ठीक, ठीक से रख दिया जाए, तो बहुत हैरानी होगी। वह हैरानी यह होगी कि अगर इसको ऐसा कहा जाए: जो भी पथ है, वह इस पुस्तक का श्रेय जाता है रामेन्द्र जी को जिन्होंने आर्थिक रूप से हमारी सहायता की, आप भी हमारी सहायता कर सकते हैं -देखें आखिरी पेज
SR No.002371
Book TitleTao Upnishad Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year
Total Pages285
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, K000, & K999
File Size4 MB
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