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है, इसलिए भी कि नदी में उतरने वाला भी बदल रहा है। जब नदी की पहली सतह पर मैंने पैर रखा था, तो मेरा मन और था। और जब नदी की आधी सतह पर मैं पहुंचा था, तो मेरा मन और हो गया। और जब तलहटी में मेरा पैर पड़ा, तब मेरा मन और था। नहीं, इतना ही नहीं कि शरीर बदल रहा है, मेरा मन भी बदला जा रहा है।
बुद्ध कहते थे अनेक बार; कोई आता तो बुद्ध कहते उससे जाते वक्त, ध्यान रखना, तुम जो आए थे वही वापस नहीं लौट रहे हो! अभी घड़ी भर पहले वह आदमी आया था। चौंक जाते थे लोग और कहते थे, क्या कहते हैं आप? बुद्ध कहते थे, निश्चित ही! तुमने सुना, मैंने कहा, इतने में भी सब बदल गया है।
झेन फकीर बोकोजू एक पुल पर से गुजर रहा है। साथी है एक साथ में। वह साथी बोकोजू से कहता है, देखते हैं आप, नदी कितने जोर से बही जा रही है! बोकोजू कहता है, नदी का बहना तो कोई भी देखता है मित्र, जरा गौर से देख, पुल भी कितने जोर से बहा जा रहा है-दि ब्रिज!
वह आदमी चौंक कर चारों तरफ देखता है, ब्रिज तो अपनी जगह खड़ा है। पुल कहीं बहते हैं? नदियां बहती हैं। वह आदमी चौंक कर बोकोजू की तरफ देखता है। बोकोजू कहता है, और यह तो अभी मैंने तुझसे पूरी बात न कही। और गौर से देख, पुल पर जो खड़े हैं, वे और भी जोर से बहे जा रहे हैं।
यहां जो भी घटित होता है समय के भीतर, वह परिवर्तन है। यहां जो भी कहा जाता है, वह मिट जाएगा। यहां जो भी लिखा जाता है, वह बुझ जाएगा। यहां सब हस्ताक्षर रेत के ऊपर हैं। रेत पर भी नहीं, पानी पर।
तो जो नाम परमात्मा का स्मरण किया जा सके, ओंठों से, वाणी से, शब्द से, समय में, स्थान में; नहीं, वह कालजयी नाम नहीं है। वह वह नाम नहीं है, जो समय के पार है। लेकिन उस नाम को स्मरण नहीं किया जा सकता। उसे कोई जान सकता है, बोल नहीं सकता। उसे कोई जी सकता है, पुकार नहीं सकता। उसमें कोई हो सकता है, लेकिन अपने ओंठों पर, अपनी जीभ पर उसे नहीं रख सकता।
साथ ही कहता है लाओत्से, न तो वह कालजयी है और न सदा एकरस रहने वाला है।
एक सा रहने वाला नहीं है। और परमात्मा भी जो बदल जाए उसे क्या परमात्मा कहना? और मार्ग भी जो बदल जाए उसे क्या मार्ग कहना? और सत्य भी जो बदल जाए उसे क्या सत्य कहना? सत्य से अपेक्षा ही यही है कि हम कितने ही भटकें और कहीं हों, जब भी हम पहुंचेंगे, वह वही होगा-एकरस, वैसा ही होगा-एकरस। हम कैसे भी हों, हम कहीं भी भटकें, जन्मों और जन्मों की यात्रा के बाद जब हम उस द्वार पर पहुंचेंगे, तो वह वही होगा-एकरस।
एकरसता, एक सा ही होना-इसमें दोत्तीन बातें खयाल में ले लेने जैसी हैं। वही हो सकता है एक सा जो पूर्ण हो। जो अपूर्ण हो वह एक सा नहीं हो सकता। क्योंकि अपूर्णता के भीतर गहरी वासना पूर्ण होने की बनी रहती है। वही तो परिवर्तन करवाती है। नदी कैसे एक जगह रुकी रहे? उसे सागर से मिलना है। भागती है। आदमी कैसे एक जगह रुका रहे? उसे न मालूम कितनी वासनाएं पूरी करनी हैं! न मालूम कितने सागर! मन कैसे एक सा बना रहे? उसे बहुत दौड़ना है, बहुत पाना है। एकरस तो वही हो सकता है, जिसे पाने को कुछ भी नहीं, पहुंचने को कोई जगह नहीं। वही जो पहुंच गया वहां, हो गया वही जिसके आगे और कोई होना नहीं है; या जो है सदा से वही।
ध्यान रहे, एकरस का अर्थ है पूर्ण। पूर्ण में दूसरा रस पैदा नहीं होता।
नसरुद्दीन के संबंध में एक मजाक बहुत जाहिर है। एक तारों वाला वाद्य उठा लाया था फकीर नसरुद्दीन। पर उस वाद्य की गर्दन पर एक ही जगह उंगली रख कर, और रगड़ता रहता था तारों को। पत्नी परेशान हई। एक दिन, दो दिन, चार दिन, आठ दिन। उसने कहा, क्षमा करिए, यह कौन सा संगीत आप पैदा कर रहे हैं? मोहल्ले के लोग भी बेचैन और परेशान हो गए। आधी-आधी रात और वह एक ही तूंतं, एक ही बजती रहती थी।
आखिर सारे लोग इकट्ठे हो गए। कहा, नसरुद्दीन, अब बंद करो! बहुत देखे बजाने वाले, तुम भी एक नए बजाने वाले मालूम पड़ते हो! हमने बड़े-बड़े बजाने वाले देखे। आदमी हाथ को इधर-उधर भी सरकाता है, कुछ और आवाज भी निकालता है। यह क्या तूंतूं तुम एक ही लगाए रखते हो; सिर पका जा रहा है। मोहल्ला छोड़ने का विचार कर रहे हैं। या तो तुम छोड़ दो, या हम! मगर इतना तो बता दो कि तुम जैसा बुद्धिमान आदमी और यह एक ही आवाज? ऐसा तो हमने कोई संगीतज्ञ नहीं देखा।
नसरुद्दीन ने कहा कि वे लोग अभी ठीक स्थान खोज रहे हैं, मैं पहुंच गया है। नीचे-ऊपर हाथ फिरा कर ठीक जगह खोज रहे हैं कि कहां ठहर जाएं। हम पहुंच गए हैं। हम तो वही बजाएंगे। मंजिल आ गई।
यह मजाक था नसरुद्दीन का। लेकिन उस आदमी ने बड़े गहरे और कीमती मजाक किए हैं। अगर परमात्मा कोई स्वर बजाता होगा, तो एक ही होगा। हाथ उसका इधर-उधर न सरकता होगा। वहां कोई धारा न बहती होगी, वहां कोई परिवर्तन न होगा।
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