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________________ प्रसन्नचन्द्र राजर्षि की कथा श्री उपदेश माला गाथा २० दीक्षा ग्रहण की है। परंतु शत्रुओं ने एकत्रित होकर उसके नगर को लूट लिया है। उस नगर के निवासी आक्रंद और विलाप कर रहे हैं। महान् युद्ध हो रहा है, अब वे शत्रु उस बालक को मारकर राज्य अपने कब्जे में करेंगे। यह सब पाप इसके सिर पर ही तो है!" _ यह सुनकर ध्यानस्थ प्रसन्नचन्द्र राजर्षि सोचने लगे- "अरे! मेरे जीवित रहते यदि शत्रु मेरे बालक को मारकर राज्य-ग्रहण करेगा तो मेरी प्रतिष्ठा नष्ट होगी।" इस प्रकार विचार करते-करते वे ध्यान से विचलित हुए और मन से ही कल्पना से शस्त्र बनाकर कल्पना से ही शत्रु के साथ युद्ध करने लगे। उनके मन में भयंकर परिणाम आने से रौद्रध्यान पैदा हुआ। अतः वे मन से ही वैरियों को मारने लगे। मैंने अमुक को मार दिया, अमुक को यह मारा" ऐसी दुर्बुद्धि के कारण मन का दुर्विचार वाणी से भी फूट निकला-'बहुत अच्छा हुआ।' अब 'जो बच गये हैं, उनको भी अभी मार गिराता हूँ।'' इस तरह वे मुनि बार-बार मन से ही घमासान युद्ध छेड़ बैठे। उस समय महाराजा श्रेणिक ने हाथी के होद्दे पर बैठे हुए प्रसन्नचन्द्र मुनि को देखा और उत्साह से स्तुति की-धन्य है राजर्षि को, जो मन की एकाग्रतापूर्वक ध्यान करते हैं।" राजा ने हाथी से नीचे उतरकर मुनीश्वर की तीन प्रदक्षिणा की, बार-बार वंदना की और स्तुति की। इसी तरह मन से वंदनस्तुति करता हुआ राजा हाथी पर चढ़कर भगवान् महावीर स्वामी के पास पहुंचा। भगवान् का समवसरण देखते ही पंचाभिगम कर श्री जिनेश्वर भगवान् को वंदन किया और हाथ जोड़कर निम्नोक्त श्लोकों से प्रभु की स्तुति की अद्याऽभवत्सफलता नयनद्वयस्य, देव! त्वदीयचरणाम्बुजवीक्षणेन । अद्य त्रिलोकतिलक! प्रतिभासते मे, संसारवारिधिरयं चुलुकप्रमाणम् ॥८॥ ___अर्थात् - प्रभो! आपके चरण-कमलों के दर्शन से आज मेरे दोनों नेत्र सफल हुए हैं। और हे त्रिलोकतिलक! आज यह संसार-समुद्र मुझे एक अंजली-प्रमाण (चुलूभर) मालूम होता है ।।८।। दिढे तुह मुहकमले, तिन्निवि णट्ठाई निरवसेसाई । दारिदं दोहग्गं, जम्मंतरसंचियं पावं ॥९॥ अर्थात् - आपके मुख-कमल के दर्शन (देखने) से मेरा दारिद्रय, दुर्भाग्य और पूर्वजन्मों के संचित पाप, ये तीनों सर्वथा नष्ट हो गये हैं ॥९॥ इस प्रकार के एक सौ आठ श्लोकों से श्री जिनेश्वरदेव की स्तुति करके श्रेणिक अपने योग्य स्थान पर बैठा। प्रभु ने दुःखनाशिनी धर्म-देशना प्रारंभ की। धर्मोपदेश पूर्ण होने के बाद श्रेणिक राजा ने भगवान् से पूछा-"विभो! जिस समय 42
SR No.002364
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages444
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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