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प्रसन्नचन्द्र राजर्षि की कथा
कहा है
भी सुख नहीं है । " दुःखं स्त्रीकुक्षिमध्ये प्रथममिह भवे गर्भवासे नराणाम्, बालत्वे चापि दुःखं मललुलितवपुः स्त्रीपयःपानमिश्रं । तारुण्ये चापि दुःखं भवति विरहजं वृद्धभावोऽप्यसारः, संसारे रे मनुष्या! वदत यदि सुखं स्वल्पमप्यस्ति किञ्चित् ||४||
अर्थात् - मनुष्य को इस संसार में सर्व प्रथम स्त्री की कुक्षि में गर्भवास का दुःख होता है। बचपन में भी माता के स्तनपान में और मलमूत्र से शरीर लिपटा रहने से दुःख होता है। युवावस्था में स्त्री आदि के विरह से दुःख उत्पन्न होता है और बुढ़ापा तो सर्वथा सार रहित ही है। अतः हे मनुष्यों! यदि इस संसार में थोड़ा भी सुख हो तो कहो !
इस प्रकार वैराग्य के रंग में रंगा हुआ राजा मन में विचार करता है'सचमुच, इस संसार में वैराग्य से बढ़कर कोई भी सुख नहीं है।' कहा भी है—
श्री उपदेश माला गाथा २०
भोगे रोगभयं सुखे क्षयभयं वित्तेऽग्निभूभृद् भयं, दास्ये स्वामिभयं गुणे खलभयं वंशे कुयोषिद्भयम् । माने म्लानिभयं जये रिपुभयं काये कृतान्ताद् भयं,
सर्वं नाम भयं भवेऽत्र भविनां वैराग्यमेवाभयम् ||५||
अर्थात् - भोग में रोग का भय है, सुख में नष्ट होने का भय है, धन में आग से जल जाने या राजा द्वारा हरण किये जाने का भय है, दास (नौकर) को स्वामी का भय है, गुण में नीच मनुष्य का भय, वंश में कुभार्या ( नीच स्त्री) का भय है, मान के साथ अपमान का भय लगा है, विजय के पीछे शत्रु का भय लगा है और शरीर को यमराज का भय होता है। इस संसार में प्राणियों को सर्वत्र भय है। एकमात्र वैराग्य में ही निर्भयता है ||५||
इस तरह राजा ने सांसारिक सुखों से विरक्त होकर अपने बालपुत्र को राजगद्दी पर बिठाया और स्वयं ने तत्काल केशों का लोच कर जैनेन्द्री दीक्षा अंगीकार की। मुनि बनकर वे पृथ्वी पर विचरण करते-करते क्रमश: राजगृही नगरी पहुँचे। और वहाँ के एक उद्यान में कायोत्सर्ग - मुद्रा में ध्यानस्थ खड़े रहे । उस समय चौदह हजार साधुओं के अधिपति श्रमण भगवान् महावीरस्वामी अपनी शिष्यमण्डलीसहित एक गाँव से दूसरे गाँव विचरते हुए देवों द्वारा रचित स्वर्णकमल पर अपने चरण कमल रखते हुए राजगृही नगरी के बाहर गुणशील नामक चैत्य में पधारें। देवों ने वहाँ उपस्थित होकर समवसरण ( धर्मसभा) की
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