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श्री उपदेश माला गाथा ५११-५१४ निश्चय-व्यवहार से साधु संविग्न पाक्षिक कौन?
परिचिंतिऊण निउणं, जड़ नियमभरो न तीरए वोढुं ।
पचित्तरंजणेणं न वेसमेत्तेण साहारो ॥५११॥
शब्दार्थ - गहराई से निपुणतापूर्वक विचार करते हुए अगर उसे लगे कि वह साधुजीवन के मूलगुण-उत्तर गुणों के भार को उठाने में समर्थ नहीं है, तो सिर्फ दूसरों के मन को बहलाने वाला कोरा साधुवेष उसे दुर्गति में गिरते हुए आधारभूत (सहारा) नहीं हो सकता। अर्थात्-मूलगुण-उत्तरगुणों के पालन किये बिना केवल दोष धारण करने से दुर्गति से रक्षा नहीं हो सकती ।।५११।।
निच्छयनयस्स चरणस्सुवग्याए, नाणदंसणवहो वि । यवहारस्स उ चरणे हयम्मि, भयणा उ सेसाणं ॥५१२॥
शब्दार्थ-भावार्थ - 'निश्चयनय की दृष्टि से कहें तो चारित्र के नाश होने पर ज्ञान और दर्शन भी विनष्ट हो जाते हैं। व्यवहारनय की दृष्टि से कहे तो चारित्रनाश होने पर ज्ञान-दर्शन नष्ट होते भी हैं, और नहीं भी होते।' तात्पर्य यह है कि चारित्र का नाश होने पर आश्रव का सेवन करने पर ज्ञान-दर्शन दोनों नष्ट हो जाते हैं; परंतु कोई साधक मोहकर्म या विषयासक्ति के कारण चारित्र को छोड़ देता है, फिर भी उसकी श्रद्धा (दर्शन) चारित्र के प्रति पूरी है और उसके स्वरूप का भी उसे यथार्थ ज्ञान है, इसीलिए उसके ज्ञान-दर्शन चारित्र गुण के बिना भी संभव है ।।५१२।।
सुज्झइ जई सुचरणो, सुज्झइ सुस्सावओ वि गुणकलिओ।
ओसन्नचरणकरणो, सुज्झइ संविग्गपक्खरुई ॥५१३॥
शब्दार्थ - सम्यग्चारित्री साधु किसी दोष के लगने पर शुद्ध हो सकता है, जो श्रावक विनय-ज्ञानादि गुणों से युक्त है, वह भी शुद्ध हो सकता है; तथा चरण-करण में शिथिल, किन्तु मोक्षाभिलाषी और क्रिया में रुचि रखने वाला संविग्न पाक्षिक साधु भी शुद्ध हो सकता है। यानी ये सब आत्महित कर सकते हैं।। ५१३।।
संविग्गपक्खियाणं, लखणमेयं समासओ भणियं । ओसन्नचरणकरणा वि, जेण कम्म विसोहिंति ॥५१४॥
शब्दार्थ - 'चूंकि संविग्नपाक्षिक साधुओं का लक्षण श्री तीर्थंकरदेवों ने संक्षेप में इस प्रकार का बताया है कि वे मोक्षाभिलाषी साधुओं के हिमायती होते हैं, क्रियानुष्ठान में भी रुचि रखते हैं। इस कारण चरण-करण में शिथिल होते हुए भी वे ज्ञानावरणीय आदि कर्मों का क्षय कर देते हैं ।।५१४।।
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