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________________ श्री उपदेश माला गाथा ४४५ सुलस की कथा शरीर में अत्यंत शांति हुई। उसे बड़ा आराम मिला। वह अपने मन में अब स्फूर्ति और प्रसन्नता महसूस करने लगा। इस प्रकार कालसौकरिक मरकर सप्तम नरक में पैदा हुआ। उसकी मरणोत्तरक्रिया करने के बाद सुलस के परिवार वालों ने उससे कहा-"पिता की मृत्यु के बाद अब तुम भी प्रतिदिन ५०० भैंसे मारकर उस कमाई से अपने परिवार का भरण पोषण करो। अपने कुटुंब के अगुआ बन जाओ।" सुलस से साफ कह दिया-"मैं ऐसा पापकर्म कदापि नहीं करूंगा; क्योंकि ऐसे पापकर्म के करने से मुझे नरक में जाना पड़ेगा। उस समय कुटुंब का कोई भी व्यक्ति मुझे शरण या आधार देने वाला नहीं होगा। अपनी जीभ के स्वाद के लिए जो व्यक्ति हिंसा करता है, वह अवश्य ही दुर्गति में जाता है। किसी के एक कांटा चुभ जाय तो भी उसे बहुत पीड़ा होती है, तब अनाथ और अशरण पशुओं को शस्त्रादि से मारने से उन्हें कितनी पीड़ा होती होगी, इसका अंदाजा लगाना ही कठिन है। इसीलिए ऐसे पापकर्म के द्वारा कुटुंब के भरणपोषण करने से क्या • लाभ? मुझे ऐसी हिंसावृत्ति से कोई मतलब नहीं। मैं ऐसे भयंकर पापजनक कर्म में नहीं पडूंगा।" यह सुनकर परिवार वाले कहने लगे-तुम्हें अकेले ही उस पाप के भागी नहीं होना होगा, हम भी तो उसमें हिस्सेदार होंगे। इसीलिए थोड़े-से पाप से डरकर तुम्हें अपनी कुलपरंपरा नहीं छोड़नी चाहिए। परिवारवाले जब अपने आग्रह पर अड़े रहे तो सुलस ने उन्हें समझाने के लिए युक्ति सोचकर एक कुल्हाड़ी हाथ में ली और उसे अपने पैर पर मारी। इससे थोडी ही देर में वह लहुलुहान और अचेत होकर जमीन पर गिर पड़ा। यह देखकर सारे परिवार और पड़ोस के लोग इकट्ठे हो गये। थोड़ी देर बाद जब उसे होश आया तो वह जोर-जोर से चिल्लाने लगा। अपने परिवार वालों से कहने लगा"मुझे अत्यंत पीड़ा हो रही है; लो, तुम सब थोड़ी-थोड़ी बांट लो; जिससे मेरी पीड़ा कम हो जाये।" वे बोले- "दूसरे की पीड़ा इस तरह से बांटी या ली नहीं जा सकती।" सुलस ने अच्छा मौका देखकर कहा-"जब तुम मेरी इस पीड़ा में से हिस्सा नहीं ले सकते, तब मेरे पाप में से कैसे हिस्सा ले सकोगे? इसीलिए अपने कर्मों का फल जीव को खुद को भोगना पड़ता है, उसमें दूसरा कोई हिस्सा नहीं बंटा सकता।" अपने बुद्धि कौशल से सुलस ने अपने सारे परिवार को भलीभांति समझा दिया। अब सुलस की अहिंसा और धर्म की बातें उनके गले उतर गयी। - 387
SR No.002364
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages444
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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