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________________ श्री उपदेश माला गाथा ४३८ - ४३६ की गिनती में आता है ।। ४३७ ।। दर्दुरांक देव की कथा बहुदोससंकिलिट्टो, नवरं मइलेड़ चंचलसहायो । सुट्ठ वि वायामितो, कायं न करेड़ किंचि गुणं ॥ ४३८ ॥ शब्दार्थ - राग-द्वेष रूपी अनेक दोषों से भरा हुआ, दुष्टचित्त, चंचल स्वभावी और विषयादि में लुब्ध साधु परिषह आदि सहकर शरीर को अत्यंत कष्ट देता है; अगर उस कायकष्ट से वह कर्मक्षय रूप आत्महित जरा भी नहीं करता; उलटे, अपनी आत्मा को मलीन बनाता है ।।४३८ ।। केसिं चि वरं मरणं, जीवियमन्नेसिं उभयमन्नेसिं । दद्दरदेविच्छाए, अहियं केसिं चि उभयं पि ॥ ४३९ ॥ शब्दार्थ - इस जगत् में कई जीवों का मरना ही अच्छा है, कईयों का जीना अच्छा है, कितने ही जीवों का जीना और मरना दोनों अच्छे हैं और कइयों का मरना और जीना दोनों दुःखदायी है। इसका विस्तृत वर्णन निम्नोक्त दर्दुरांकदेव की कथा से जानना ।। ४३९ // दर्दुरांक देव की कथा उन दिनों कौशांबी महानगरी में शतानीक नाम का राजा राज्य करता था। उस समय उस नगर में एक सेडुक नाम का अतिदरिद्र ब्राह्मण रहता था। एक बार उसकी पत्नी गर्भवती हुई। जब उसका प्रसवकाल नजदीक आया, तब उसने अपने पति से कहा - " मेरा प्रसूतिकाल निकटतम है, इसीलिए आप मुझे घी - गुड़ आदि ला दें। तब सेडुक ने कहा- प्रिये! मेरे पास ऐसी कोई कला नहीं है, जिससे मैं धन उपार्जित कर सकूं। और बिना धन के घी, गुडँ आदि कहाँ से ला सकूंगा ? " यह सुनकर वह बोली - "यदि आपके पास कला न हो तो भी कुछ न कुछ उद्यम करने से अवश्य ही फल की प्राप्ति होती है।" कहा भी है प्राणिनामन्तरस्थायी न ह्यालस्यसमो रिपुः । समं मित्रं यं कृत्वा नावसीदति ॥१३१॥ अर्थात् - प्राणियों के अंतर में रहे हुए आलस्य के समान संसार में कोई शत्रु नहीं है। और उद्यम के समान कोई मित्र नहीं है। उद्यम करने पर प्राणी दुःख नहीं पाता ॥ १३१ ॥ सेडुक अपनी पत्नी की बात सुनकर एक फल लेकर राजसभा में पहुँचा और उसे राजा को भेंट दिया। इसी प्रकार वह रोजाना एक फल लेकर राजसभा में जाता और राजा शतानीक को भेट देकर चला आता। यों सेवा करते हुए उसे काफी दिन हो गये। 377
SR No.002364
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages444
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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