________________
श्री उपदेश माला गाथा ४२६-४३३ जीवरक्षा तथा महाव्रतों का पालन न करने वाला साधु
छज्जीवनिकायमहव्ययाण, परिपालणाए जइधम्मो । जइ पुण ताई न रक्खड़, भणाहि को नाम सो धम्मो? ॥४२९॥
शब्दार्थ - पृथ्वीकाय, अपकाय, तेउकाय, वायुकाय, वनस्पतिकाय और त्रसकाय इन षड् जीवनिकायों की आत्मवत्र रक्षा करने से और प्राणातिपात विरमणादि पांच महाव्रतों का यथाविधि परिपालन करने से ही साधुधर्म सफल होता है। परंतु जो उन जीवनिकायों की रक्षा व पांच महाव्रतों का पालन नहीं करता। तो भला बताओ वह कैसे धर्म हो सकता है? जीवरक्षा और महाव्रतपालन के बिना साधुधर्म नहीं कहलाता ।।४२९।।
छज्जीवनिकायदयाविवज्जिओ, नेव दिक्खिओ न गिही । जइधम्माओ चुक्को, चुक्कड़ गिहिदाणधम्माओ ॥४३०॥
शब्दार्थ - षड्जीवनिकाय की दया से रहित केवल वेषधारी दीक्षित साधु नहीं कहलाता है और सिर मुंडा हुआ होने से उसे गृहस्थ भी नहीं कहा जा सकता। वह साधुधर्म से भी भ्रष्ट हुआ और गृहस्थ के योग्य दानधर्म से भी भ्रष्ट हुआ है; क्योंकि उसका दिया हुआ दान भी शुद्ध संयमी के लिए कल्पनीय नहीं होता ।।४३०।।
सय्याओगे जह कोइ, अमच्चो नरवइस्स पित्तूणं । आणाहरणे पावइ, यह-बंधण-दव्यहरणं च ॥४३१॥
शब्दार्थ - जैसे कोई प्रधानमंत्री राजा की कृपा से समस्त अधिकारों को पाकर बाद में उस राजा की आज्ञा का उल्लंघन करता है तो उसे दंड आदि प्रहार, लोहे की जंजीर से बंधन में डालने तथा द्रव्य आदि सर्वस्व छीने जाने की सजा मिलती है और अंत में उसे मृत्यु का वरण भी करना पड़ता है ।।४३१।।
तह छक्कायमहव्ययसबनिवित्तीउ गिण्हिऊण जई । एगमयि विराहतो, अमच्चरन्नो हणइ बोहिं ॥४३२॥
शब्दार्थ - उसी तरह षड्जीवनिकायरक्षा और पंचमहाव्रत संबंधी सर्वथा निवृत्ति रूप संयम ग्रहण करके उच्चाधिकार रूप साधु पद प्राप्त करके जो एक भी जीव की अथवा एक भी महाव्रत की विराधना करता है, वह देवाधिदेव श्री तीर्थकर परमात्मा के द्वारा प्रदत्त सम्यक्त्व-महारत्न का विनाश करता है। अर्थात्-जिनाज्ञा का भंग करने से सम्यक्त्व का नाश करके वह महाविडबना का भागी होता है और उससे वह अनंतसंसारी बनता है ।।४३२।।
तो हयबोही य पच्छा, क्यावराहाणुसरिसमियममियं । पुणवि भयोयहिपडिओ, भमइ जरामरणदुग्गंमि ॥४३३॥
- 375