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________________ शास्त्रज्ञानरहित साधु की संयमक्रिया व्यर्थ है श्री उपदेश माला गाथा ४१८-४२० पव्वावणविहिमुट्ठावणं च, अज्जाविहिं निरवसेसं ।। उस्सग्गवयायविहिं, अजाणमाणो कहिं? जयओ ॥४१८॥ युग्मम् - शब्दार्थ - कल्प्य-अकल्य्य को, आहार एषणीय-अनैषणीय को, चरण (चारित्र) के ७० भेदों व करण के ७० भेदों को, नवदीक्षित को दी जाने वाली शिक्षाविधि को, दस प्रकार के प्रायश्चित्तों की विधि को, तथा द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की तथा उत्तम और मध्यम गुणों की सम्पूर्ण विधि से अनभिज्ञ, वैराग्ययुक्त को दीक्षा देने की विधि को, महाव्रत का उच्चारण करने की बड़ी दीक्षा की विधि को; साध्वी की विधि और शुद्ध आचार-पालन वाले उत्सर्ग मार्ग एवं किसी कारण विशेष में आपत्ति के समय आचरणीय अपवाद मार्ग की विधि को संपूर्ण रूप से नहीं जानने से अल्पश्रुत वेषधारी साधु क्या किसी तरह मोक्ष-मार्ग में आत्महित सिद्ध कर सकता है? कदापि नहीं ।।४१७-४१८।। सीसायरिकमेण य, जणेण गहियाई सिप्पसत्थाई । नजंति बहुविहाई, न चक्नुमित्ताणुसरियाई ॥४१९॥ शब्दार्थ - ऐसा देखा जाता है कि लौकिक विद्या पढ़ने वाला शिष्य भी विनयपूर्वक कलाचार्यादि को प्रसन्न करके उनसे विद्या ग्रहण करता है। इस प्रकार के विनय के क्रम से अनेक प्रकार के शिल्प व्याकरण आदि शास्त्रों को वह अच्छी तरह से ग्रहण कर सकता है। अर्थात् विनयपूर्वक बहुमान से ग्रहण किया हुआ शास्त्र सफल होता है। परंतु अपनी स्वच्छंदबुद्धि से गुरु का विनय किये बिना अपने आप शास्त्र को देखने या पढ़ने से शास्त्रज्ञान फलीभूत नहीं होता। कहने का मतलब यह है कि जब अपने आप सीखे हुए लौकिक-शास्त्र भी सीखने वाले को फलीभूत नहीं होते तो फिर लोकोत्तर शास्त्रों के लिए तो कहना ही क्या? ।।४१९।। जह उज्जमिउं जाणड़, नाणी तव-संजमे उवायविऊ । तह चक्नुमित्तदरिसण, सामायारी न याति ॥४२०॥ शब्दार्थ - उपाय को जानने वाला ज्ञानी जैसे तप और संयम में उद्यम करना जानता है, अर्थात् ज्ञानी पुरुष सिद्धांत ज्ञान के कारण शुद्ध उद्यम करता है; उसी तरह आँखों से देखने मात्र से यानी क्रियानुष्ठानादि करने वालों के पास में रहने मात्र से उनकी देखादेखी जो आचरण करता है वह शुद्ध आचरण नहीं जानता। स्वयं सिद्धांत ज्ञान प्राप्त करके उससे जैसा जानता है, वैसा दूसरे को करते हुए देखने मात्र से भी वह नहीं जान सकता। वह मनुष्य आत्म-कल्याण का वास्तविक उपाय जाने बिना किस तरह चित्त-शुद्धि रूप सफल उद्यम कर सकता है ।।४२०।। 372
SR No.002364
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages444
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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