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अगीतार्थ साधु के लक्षण व क्रिया निष्फल . श्री उपदेश माला गाथा ४०६-४१३ अथवा अगीतार्थ के निश्रा में रहने वाले दूसरे साधु भी तप-संयम में यतना कैसे कर सकते हैं? अथवा वह अगीतार्थ अनेक बाल, ग्लान और वृद्धादि से युक्त विशाल साधु-गच्छ को संयम-पालन में प्रेरणा कैसे कर सकेगा? ।।४०८।।
सुत्ते य इमं भणियं, अप्पच्छित्ते य देइ पच्छित्तं । पच्छित्ते अइमत्तं, आसायण तस्स महईओ ॥४०९॥
शब्दार्थ - सूत्र (शास्त्र) में इस प्रकार कहा है कि जो अगीतार्थ प्रायश्चित्त के अयोग्य निर्दोष को तपस्यादि प्रायश्चित्त (दंड) देता है और प्रायश्चित्त के योग्य को प्रायश्चित्त नहीं देता अथवा न्यूनाधिक प्रायश्चित्त देता है तो प्रायश्चित्त देने वाले अगीतार्थ का भगवदाज्ञाभंग रूप महा-आशातना-विराधना होती है ।।४०९।।
आसायणमिच्छत्तं, आसायणवज्जणाउ सम्मत्तं । ___आसायणानिमित्तं, कुब्बड़ दीहं च संसारं ॥४१०॥
शब्दार्थ - जिनाज्ञाभंग रूप आशातना करना मिथ्यात्व कहलाता है और आशातना से बचकर जिनाज्ञा-पालन करने को सम्यक्त्व कहा जाता है। जिनाज्ञा की यत्नपूर्वक आराधना करने वाला सम्यक्त्वरत्न की प्रासि करता है; परंतु स्वेच्छाचारी जिन-आज्ञा का भंगकर भयंकर आशातना करने वाला होता है, वह चिरकालपर्यंत चारगति रूप संसार में परिभ्रमण करता है ।।४१०।।
__ एए दोसा जम्हा अगीयंजयंतस्सडगीयनिस्साए । वट्टावय गच्छस्स य, जो य गणं देइऽगीयस्स ॥४११॥
शब्दार्थ- ऊपर बताये कारणों से तप, जप, संयम में यतना करते हुए अगीतार्थ को भी पूर्वोक्त दोष लगते हैं, अगीतार्थ की निश्रा में रहकर तप, जप, संयम करने वाले को भी दोष लगता है और गच्छ को प्रेरणा करने वाले अगीतार्थ को भी दोष लगता है तथा यदि गीतार्थ, या अगीतार्थ (शास्त्ररहस्य से अनभिज्ञ) को आचार्यपद का भार सौंपा जाय तो देने वाले को ये पूर्वोक्त दोष लगते हैं। और जो अगीतार्थ आचार्यपद लेता है उसे भी ये दोष लगते हैं ।।४११।।
अबहुस्सुओ तवस्सी, विहरिउकामो अजाणिऊण पहं । अवराहपयसयाई, काऊण वि जो न याणाइ ॥४१२॥ देसियराइयसोहिय, वयाइयारे य जो न याणेइ । अविसुद्धस्स न वड्डइ, गुणसेढी तित्तिया हाइ ॥४१३॥ युग्मम्
शब्दार्थ - कोई बहुश्रुत न हो, किन्तु लंबी तपस्या करने वाला हो; मगर यदि मोक्षमार्ग को जाने बिना विहार करना चाहता है तो वह सैकड़ों अपराध (दोष)
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