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________________ श्री उपदेश माला गाथा ३८६-३६२ स्थिरवासी भी आराधक साधु रहने वाला, इन पांचों पदों (गुण) के संयोग से साधु संयम-चारित्र का आराधक कहलाता है। इन गुणों में से जिसमें जितने-जितने अधिक-अधिक गुण होते हैं, वह मुनि उतना-उतना अधिकाधिक आराधक होता जाता है ।।३८८।। . निम्मम-निरहंकारा, उवउत्ता नाणदंसणचरित्ते । एगक्खित्ते वि ठिया, खविंति पोराणयं कम्मं ॥३८९॥ शब्दार्थ - ममता से रहित, अहंकार रहित, अवबोध रूप ज्ञान में, तत्त्वश्रद्धान रूप दर्शन में और आश्रव का निरोध-संवर ग्रहण-रूप चारित्र में सावधान (उपयोगयुक्त महान् आत्मा) साधु एक क्षेत्र में रहते हुए भी पूर्वजन्म में संचित किये हुए ज्ञानावरणीय आदि पुराने कर्मों का क्षय करते हैं ।।३८९।। जिय-कोह-माण-माया, जिय-लोभपरीसहा य जे धीरा । बुड्डावासे वि ठिया, खवंति चिरसंचियं कम्मं ॥३९०॥ शब्दार्थ- जो क्रोध-मान और माया को जीत चुके हैं, जो लोभ संज्ञा से रहित हैं और जिन्होंने क्षुधा-पिपासा आदि बाईस परिषहों को जीत लिया है; ऐसे धीर और आत्मबली साधु वृद्धावस्था में एक स्थान पर रहते हुए भी चिरकाल के संचित ज्ञानावरणादि कर्मों को नष्ट कर डालते हैं। श्रीजिनेन्द्र भगवान् की आज्ञा है कि सदाचारी मुनि किसी विशेष कारण को लेकर एक स्थान पर भी निवास कर सकते हैं ।।३९०।। _ पंचसमिया तिगुत्ता, उज्जुत्ता संजमे तवे चरणे । वाससयं पि वसंता, मुणिणो आराहगा भणिया ॥३९१॥ .. शब्दार्थ - पांच समितियों से युक्त, तीन गुसिगों से संयम-रक्षा करने वाले, सत्रह प्रकार के अथवा षड्जीवनिकाय की रक्षा रूप संयम का पालन करने वाले, बारह प्रकार के तप करने में उद्यत तथा पांच महाव्रत रूप क्रिया में सदा सावधान रहने वाले मुनि किसी कारणवश सौ वर्ष तक भी एक ही क्षेत्र में रहे तो भी आराधक है। श्रीजिनेश्वर भगवान् की आज्ञा पूर्वक चलने वाले मुनि को एक स्थान पर रहने में कोई दोष नहीं है ।।३९१।। तम्हा सव्वाणुन्ना, सव्वनिसेहो य पवयणे नत्थि । आयं वयं तुलिज्जा, लाहाकंखि व्य वाणियओ ॥३९२॥ शब्दार्थ - ऊपर कही हुई बातों से ज्ञात होता है कि जिनशासन में ऐसा एकान्त विधिनिषेध (सर्वथा ऐसा करना अथवा ऐसा बिलकुल नहीं करना) नहीं है, क्योंकि जिनशासन स्याद्वादमय है, इसीलिए लाभाकांक्षी वणिक् के समान लाभालाभ 365
SR No.002364
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages444
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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