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________________ श्री उपदेश माला गाथा ३८६ कपटक्षपक तपस्वी की कथा, विराधक, आराधक इस विषय पर कपटक्षपक तापस का दृष्टांत कहा जा रहा है जोऽवि य पाडेऊणं, मायामोसेहिं खाइ मुद्धजणं । तिग्गाममज्झवासी, सो सोयड़ कवडखवगु व्य ॥३८६॥ शब्दार्थ - ऐसां कपटी साधु झूठा वचन बोलकर दंभ, द्रोह करने से मायामृषावाद नामक १७ वें पापस्थानक का सेवन कर भोले भाले लोगों को विविध कूटकपट युक्त चेष्टा से आकर्षित करके अपने मिथ्याजाल में फंसा लेता है। ऐसे व्यक्ति को तीन गाँव के मध्य में रहने वाले कपटक्षपक तापस के सदृश पछताना . पड़ेगा ।।३८६।। संप्रदाय परंपरा से सुनी हुई वह कथा ज्यों की त्यों दे रहे हैं कपटक्षपक तपस्वी की कथा उज्जयिनी नगरी में एक अघोरशिव नाम का महाधूर्त ब्राह्मण रहता था। वह महाकपटी, महाधूर्त और महापापी था। इसीलिए राजा ने उसे देश निकाला दे दिया था। अतः वह चमारदेश में गया; वहाँ चोर पल्ली में जाकर चोरों से मिला। उसने चोरों से कहा- 'यदि तुम, लोगों में मेरी प्रशंसा करो तो मैं परिव्राजकसंन्यासी का वेष धारण करके इन तीन गाँवों के बीच में स्थित अटवी में रहूँ और तुम्हें बहुत-सा धन बटोर कर दूं।' यह सुनकर चोरों ने उसकी बात मंजूर कर ली। फिर वह ब्राह्मण तापस का वेष धारण करके उन तीनों गाँवों के बीच में रहकर कपटवृत्ति से एक महीने के उपवास करने लगा और वे चोर भी झूठमूठ ही सबको कहने लगे धन्य है, इस महात्मा को! बड़ा पहुँचा हुआ है! यह तपस्वी हमेशा महीने-महीने के उपवास के बाद पारणा करता है। इसे सुनकर सभी भोलेभाले लोग उसकी असलियत न जानने के कारण उसे वंदना-नमस्कार करने लगे और भोजन के लिए अपने घर का आमंत्रण देकर जाने लगे। उसे इच्छानुसार भोजन करवाकर वे पहले अपना घर बताते और फिर अपने घर की बातें बता देते थे। अब तो वे प्रसंग-प्रसंग पर निमित्त आदि पूछने लगे। कपटी तापस भी लग्न के बल से लोगों का भविष्य बता देता था। वह कपटक्षपक रात को चोरों को बुलाकर स्वयं जो दिन में गृहस्थों के घरों में खुद देखता था, वे सारी बातें उन्हें कह-समझा देता था। चोर उनके घरों की दीवार में सेंध लगाकर चोरी करते जाते थे। इस तरह हमेशा चोरी कराकर उसने तीनों गाँवों के लोगों को निर्धन बना दिया। एक दिन वे चोर एक किसान के घर में सेंध लगा रहे थे, उस समय किसान का लड़का जाग गया। इससे और चोर तो भाग गये; मगर एक चोर पकड़ा गया। अतः वे उसे पकड़कर राजा के 363
SR No.002364
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages444
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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