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पासत्थादि साधुओं के लक्षण
श्री उपदेश माला गाथा ३६४-३६८ शब्दार्थ - जो स्थापनाकुल अर्थात् वृद्ध, ग्लान, रुग्ण आदि साधुओं की अत्यंत भक्ति करने वाले श्रावक के घर से बिना ही कारण आहार लेने जाता है, ऐसे घर से आहार लेने से रुकता नहीं; आचारभ्रष्ट साधुओं का संग करता है; हमेशा दुर्ध्यान में तत्पर रहता है और दृष्टि से देखकर या रजोहरणादि से प्रमार्जन करके भूमि पर वस्तु रखने का आदि नहीं है ।।३६३।।
- रीयड़ य दवदवाए, मूढो परिभवइ तहय रायणिए ।
पपरियायं गिण्हइ, निठुरभासी विगहसीलो ॥३६४॥
शब्दार्थ - और बिना ही उपयोग के जो जल्दी-जल्दी चलता है और जो मूढ़, ज्ञानादिगुणरत्नों में अधिक दीक्षा ज्येष्ठ का अपमान करता है, उनकी बराबरी करता है, दूसरों की निन्दा करता है, निष्ठुर होकर कठोर वचन बोलता है और स्त्री आदि की विकथाएं करता रहता है ।।३६४।।
विज्जं मंतं जोगं, तेगिच्छं कुणड़ भूइकम्मं च । __ अक्खरनिमित्तजीवी, आरंभपरिग्गहे रमइ ॥३६५॥
शब्दार्थ - जो विद्या=देवी-अधिष्ठित, मंत्र-देवअधिष्ठित, अदृश्य करणादि योग (चूर्ण), औषध-प्रयोग, भूतिकर्म-राख (वासक्षेप) आदि मंत्रित कर गृहस्थ को देता है तथा अक्षरविद्या और शुभाशुभलग्नबलादि निमित्त गृहस्थों को बताकर अपनी आजीविका चलाता है; या प्रतिष्ठा बटोरता है; तथा अधिक उपकरण आदि के संचय रूप परिग्रह में ही अहर्निश आसक्त रहता है ।।३६५।।
ज्जेण विणा उग्गहमणुजाणावेइ, दिवसओ सुयइ । अज्जियलाभं भुंजइ, इत्थिनिसिज्जासु अभिरमड़ ॥३६६॥
शब्दार्थ - जो बिना प्रयोजन के गृहस्थों को रहने के लिए अवग्रह-भूमि की अनुज्ञा देता है, दिन को सोता है, साध्वियों का लाया हुआ आहार करता है और स्त्री के उठने के तुरंत बाद ही उस स्थान पर बैठ जाता है ।।३६६।।
उच्चारे पासवणे, खेले सिंघाणए अणाउत्तो । ___संथारगउयहीणं, पडिक्कमइ या सपाउरणो ॥३६७॥
शब्दार्थ - जो वड़ीनीति-लघुनीति (मलमूत्र) थूक, कफादि और नाक का मैल (लींट) आदि असावधानी से यतना के बिना जहाँ-तहाँ परठ (डाल) देता है; तथा संथारा (शय्यासन) अथवा उपधि पर बैठकर प्रतिक्रमण करता है ।।३६७।।
न करेइ पहे जयणं, तलियाणं तह रेइ परिभोगं ।
चरइ अणुबद्धवासे, सपखपरपक्खओ माणे ॥३६८॥ 358