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पासत्थादि साधुओं के लक्षण
श्री उपदेश माला गाथा ३५३-३५६ साधुओं की मंडली (मंडल) में साथ बैठकर आहार नहीं करता; परंतु अकेला ही भोजन करता है, तथा आलस्यवश भिक्षा के लिए सब जगह नहीं घूमता; या अपने स्थान पर ही गृहस्थ से आहार मंगवा लेता है, या खास-खास थोड़े-से घरों से आहार ले आता है ।।३५५।।
कीबो न कुणड़ लोयं, लज्जड़ पडिमाड़ जल्लमवणेड़ ।
सोवाहहो य हिंडड़, बंधड़ कडिपट्टयमकज्जे ॥३५६॥
शब्दार्थ - जो मन का दुर्बल होकर केशों का लोच नहीं करता; जिसे कायोत्सर्ग आदि व प्रतिमा करने में लज्जा आती है, जो शरीर का मैल हाथ से या जल से उतारता है, जूते पहनकर चलता है और बिना ही कारण कमर पर चोलपट्टा बांधता है ।।३५६।।
गाम देसं च कुलं, ममायए पीढफलगपडिबद्धो । घरसरणेसु पसज्जड़, विहरइ य सकिंचणो रिक्को ॥३५७॥
शब्दार्थ - किसी या किन्हीं गाँव, नगर, देश (राष्ट्र) और कुल आदि को, 'ये मेरे हैं" इस प्रकार अपने मानकर जो उन पर ममता (आसक्ति) रखता है; चौकी (बाजोट), पट्टा (तख्त) आदि का इतना मोह है, उन्हें छोड़ने को या उनके बिना एक दिन भी चला लेने को जिसका जी नहीं चाहता; मकान (घर, उपाश्रय, भवन, सदन आदि) की मरम्मत कराने या नया बनवाने आदि में जो आसक्त रहता है, रातदिन जो उसी की चिन्ता करता रहता है। अपने पास या अपने नाम से या अपने भक्तों के पास अपने स्वामित्त्व का सोना आदि परिग्रह रखने पर भी जो स्वयं को निग्रंथ या द्रव्यत्यागी कहलवाता हुआ विचरता है ।।३५७।।
नह-दंत-केसरोमे, जमेइ उच्छोलधोयणो अजओ ।
वहइ य पलियंकं, अरेगपमाणमत्थुरइ ॥३५८॥
शब्दार्थ - जो नख, दांत, सिर के बाल और शरीर के रोमों को संवारतासजाता है; जो गृहस्थ के समान काफी मात्रा में पानी लेकर हाथ-पैर आदि अंगों को धोता है; यतनारहित रहता है, पलंग, गद्दे, तकिये, बिस्तर आदि का उपयोग करता है और जो प्रमाण (नाप) से अधिक संथारा (शयनासन), उत्तरपट्टा आदि वस्त्रों का उपयोग करता है ।।३५८।।
सोवड़ य सव्वराई, नीसट्टमचेयणो न वा झरइ । न पमज्जतो पविसड़, निसिहियावस्सियं न करेड़ ॥३५९॥
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