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________________ श्री उपदेश माला गाथा २८६-२६१ आत्मार्थी का लक्षण और प्रमादी का अफसोस __शब्दार्थ - इस तरह प्रचुर दुःखमय-संसारोच्छेदक सर्वज्ञ-प्रणीत सद्धर्म को सद्गुरु से जानकर स्व-पर-कल्याण की साधना करने में प्रयत्नशील सत्पुरुष की तरह जागृत होने के बदले, स्वहित साधन से जीव क्यों उपेक्षा करता है? शुद्ध देव, गुरु और धर्मतत्त्व को यथार्थ रूप से जानने के बाद उसकी आराधना में प्रमाद करना अत्यंत अनुचित है। अरे! ऐसा कौन मूर्ख है कि स्वामित्व छोड़कर दासत्व स्वीकार करने को तैयार हो? जो साधक सर्वसुखदायी श्रीजिनेश्वर कथित सद्धर्म का अनादर कर विषयकषायादि प्रमाद में ही तत्पर रहता है; वह सद्गति का अनादर करके दुर्गति में अवश्य ही जाता है और दासत्व प्राप्त करता है, परंतु जो जिनवचन की आज्ञा रूपी धर्म का पालन करता है, वह सब पर स्वामित्व प्रास करता है ।।२८८।। इसीलिए श्रीजिनप्ररूपित धर्म की आज्ञा माननी चाहिए। संसारचारए चारए व्य, आवीलियस्स बंधेहिं । उब्बिग्गो जस्स मणो, सो किर आसन्न-सिद्धिपहो ॥२८९॥ शब्दार्थ - इस चारगति रूपी संसार के परिभ्रमण-समान कैदखाने में अनेक प्रकार के कर्मबंधन से पीड़ित जिस पुरुष का मन उद्विग्न हो गया हो; अर्थात् 'इस संसार बंधन से मैं कैसे छुटकारा पाऊंगा?' ऐसे रात-दिन विचार करने वाले जीव को निश्चय ही निकट भव्य जानना। उसका संसार परिमित है और वह जल्दी ही मोक्ष का अधिकारी हो जाता है ।।२८९।। आसन्न-काल-भवसिद्धियस्स, जीवस्स लक्खणं इणमो । विसयसुहेसु न रज्जइ, सव्वत्थामेसु उज्जमइ ॥२९०॥ शब्दार्थ- भावार्थ - जो जीव अल्पकाल में ही जन्म-मरण (संसार) का अंत कर मोक्ष-गति पाने वाला हो, वह पाँच इन्द्रियों के विषयों में आसक्त नहीं होता, और तप-संयम रूप स्व-पर-कल्याण-साधना में पूरी ताकात लगाकर पुरुषार्थ करता है। यही आत्मार्थी का वास्तविक लक्षण है ।।२९०।।। होज्ज व न व देहबलं, धिइमइसत्तेण जड़ न उज्जमसि । अच्छिहिसि चिरं कालं, बलं च कालं च सोयंतो ॥२९१॥ शब्दार्थ-भावार्थ - हे शिष्य! दैवयोग से शरीर में ताकत हो या न हो, फिर भी तूं धैर्य, बुद्धिबल और उत्साह के साथ धर्म में उद्यम नहीं करेगा तो बाद में अफसोस करेगा- "हाय! अब तो शरीर में ताकत न रही। यह धर्मकाय आज तो नहीं हो सकता, कल करूंगा; यों विचार करते-करते चिरकाल तक तूं संसार में परिभ्रमण करता रहेगा।" अर्थात् धर्म की आराधना नहीं करने से तुझे बाद में बहुत अर्से तक = 339
SR No.002364
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages444
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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