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श्री उपदेश माला गाथा २७१-२७४
सम्यक्च को मलिन करने वाले प्रमादशत्रु से बचो. धर्माचरण का फल
कुसमयसुईण महणं, सम्मत्तं जस्स सुट्ठियं हियए। तस्स जगुज्जोयकर, नाणं चरणं च भवमहणं ॥२७१॥
शब्दार्थ - "जिस व्यक्ति के हृदय में कुसमय (मिथ्यादर्शनियों के सिद्धांत) का नाशक सम्यक्त्व सुस्थिर हो गया, समझ लो, उसकी भव-भ्रमण का नाश करने वाले विश्व का उद्योत करने वाला केवलज्ञान और यथाख्यातचारित्र प्राप्त हो गया।' क्योंकि सम्यक्त्व न हो तो ज्ञान ज्ञान नहीं होता और सम्यक् ज्ञान के बिना चारित्र प्राप्त नहीं होता। और चारित्र के बिना मोक्ष प्राप्त नहीं होता। अतः मोक्ष का मुख्य कारण सम्यक्त्व है ।।२७१।।
सुपरिच्छियसम्मत्तो, नाणेणालोइयत्थसडभावो । निव्वणचरणाउत्तो, इच्छियमत्थं पसाहेइ ॥२७२॥
शब्दार्थ - जिसने अच्छी तरह परीक्षा करके दृढ़ सम्यक्त्व को प्राप्त कर लिया है, सम्यग्ज्ञान से जो जीव-अजीव आदि तत्त्वों का स्वरूप भलीभांति जानता है,
और उस कारण से क्षतिरहित चारित्र के पालन में संलग्न है, यानी निश्चयदृष्टि से जो सतत परभावों को छोड़कर स्वभाव में ही रमण करता है, वह जीव रत्नत्रय की सम्यग् आराधना के फल-स्वरूप इष्ट अर्थ-शाश्वतसुखरूप मोक्षार्थ को साध लेता है।।२७२।।
जह मूलताणए, पंडुरंमि दुव्वन्न-रागवण्णेहिं ।।
बीभच्छा पडसोहा, इय सम्मत्तं पमाएहिं ॥२७३॥ _ शब्दार्थ- भावार्थ - जैसे वस्त्र बुनते समय ताना (मूल तंतु) सफेद हो; किन्तु उसके साथ बाना काले, कत्थई आदि खराब रंग के तंतुओं के हों तो उस वस्त्र की शोभा मारी जाती है, वैसे ही पहले सम्यक्त्व निर्मल हो, लेकिन उसके साथ विषयकषायप्रमादादि के आ मिलने पर वह बिगड़ जाता है। इसीलिए सम्यक्त्व को मलिन करने वाले विषय-कषाय आदि प्रमाद शत्रुओं से बचना चाहिए; यही इसका निष्कर्ष है ।।२७३।।
नएसु सुरवरेसु य, जो बंधड़ सागरोवमं इक्कं । पलिओवमाण बंधइ, कोडिसहस्साणि दिवसेणं ॥२७४॥
शब्दार्थ - सौ वर्ष की उम्र वाला आदमी अगर पाप-कर्म करता है तो एक सागरोपम की आयु वाली नरक-गति का बंधन करता है और उतना ही पुण्यकर्म उपार्जन करता है तो एक सागरोपम वाली देव-गति का बंधन करता है। ऐसा पुरुष एक दिन में सुख-दुःख संबंधी हजार करोड़ पल्योपम जितना आयुष्य बांध लेता है, उतना ही पाप-पुण्य एक दिन में जीव उपार्जन कर लेता है। इसीलिए प्रमाद पूर्ण आचरण छोड़कर निरंतर पुण्योपार्जन करते रहना चाहिए ।।२७४।।
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