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________________ श्री उपदेश माला गाथा २६७ विद्यागुरु का अपलापी वीडण्डी की कथा जब लौकिक विद्या के लिए भी इतने विनय की आवश्यकता है तो लोकोत्तर विद्या के लिए तो कहना ही क्या? इसीलिए प्रत्येक शिष्य को अपने गुरुजनों से विनय पूर्वक ही शास्त्रों का अध्ययन करना चाहिए; यही इस कथा का सारांश है ।।२६६।। अब प्रकारान्तर से विनय से सम्बम्धित बातें कहते हैं विज्जाए कासवसंतियाए, दगसूयरो सिरिं पत्तो । पडिओ मुसं यंतो, सुअनिण्हवणा इअ अपत्था ॥२६७॥ शब्दार्थ - रातदिन शरीर को बार-बार पानी में ही डुबोये रखने वाले (अतिस्नानी) किसी त्रिदण्डी संन्यासी ने किसी नापित से विद्या सीखी। विद्या के प्रभाव से उसकी सर्वत्र पूजा-प्रतिष्ठा होने लगी। परंतु किसी के द्वारा 'यह विद्या किससे सीखी?' यों पूछे जाने पर जब उसने अपने 'विद्यागुरु' का नाम छिपाया तो उसकी विद्या नष्ट हो गयी ।।२६७।। इस दृष्टांत को समझकर श्रुतनिह्नवता करना, यानी शास्त्रज्ञान देने वाले का नाम छिपाना लाभदायक नहीं। ऐसा करने से विद्यानाश के सिवाय भयंकर ज्ञानावरणीय कर्मरोग बढ़ता है। प्रसंगवश यहाँ अतिस्नानी त्रिदण्डी की कथा दी जा रही है अतिस्नानी निदण्डी की कथा स्तम्बपुर में चंडिल नाम का एक अतिचतुर नाई रहता था। वह अपनी विद्या के बल से लोगों की हजामत करके अपने अस्त्रों को आकाश में अधर रख दिया करता था। एक दिन किसी त्रिदण्डी ने नाई का यह चमत्कार देखा तो उसके मुंह में भी नाई से विद्या ग्रहण करने की लार टपकी। त्रिदण्डी ने उस नाई की खूब सेवा की और प्रसन्न करके उससे वह विद्या सीख ली। उसके बाद घूमता-घामता त्रिदण्डी हस्तिनापुर आया। वहाँ के लोगों ने त्रिदण्डी का चमत्कार देखा तो वे आश्चर्यचकित हो गये; उसकी खूब सेवा-भक्ति करने लगे। धीरे-धीरे सारे नगर में उसकी शोहरत (प्रशंसा) हो गयी। वहाँ के उस समय के राजा पद्मरथ के कानों में भी त्रिदण्डी के चमत्कार की बात पड़ी। राजा भी उस कौतुक को देखने के लिए आया और उसने फिर सविनय त्रिदण्डी से पूछा- "स्वामिन्! आप अपने त्रिदण्ड को आकाश में अधर लटका कर रखते हैं; यह किसी तप का प्रभाव है या किसी विद्या का?'' त्रिदण्डी ने उत्तर दिया- "राजन्! यह विद्या की ही शक्ति का प्रभाव है।" तब राजा ने पूछा- "स्वामिन्! वह चित्तचमत्कारिणी विद्या आपने किससे सीखी?" उस समय त्रिदण्डी ने लज्जावश अपने विद्यागुरु नाई का नाम न लेकर झूठमूठ ही बात बनायी कि "राजन्! हम कई वर्षों पहले हिमालय गये थे। वहाँ हमने तपश्चर्या व कष्टकारी अनुष्ठान द्वारा सरस्वतीदेवी की आराधना 333 %3
SR No.002364
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages444
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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