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श्री उपदेश माला गाथा २६५
पुलिंद भील की कथा सुग्गइमग्गपईवं, नाणं दितस्स हुज्ज किमदेयं? । जह तं पुलिंदएणं, दिन्नं सिवगस्स नियगच्छिं ॥२६५॥
शब्दार्थ - मोक्ष रूपी सद्गति के मार्ग को प्रकाशित करने के लिए दीपक के समान जिन ज्ञानी गुरुदेव (धर्माचार्य) ने ज्ञान रूपी नेत्र दिये हैं, ऐसे उपकारी गुरु को नहीं देने योग्य कौन-सी वस्तु है? ऐसे ज्ञानदाता गुरु के चरणों में तो अपना सर्वस्व जीवन समर्पित करने योग्य है। जैसे उस पुलिंद भील ने अपनी आँख महादेव को समर्पित कर दी थी ।।२६५।। इसी प्रकार देवाधिदेव व गुरुदेव के प्रति सच्चे भक्तिभाव रखने चाहिए ।।२६५।। प्रसंगवश यहाँ अजैन कथा पुलिंद भील की दी जा रही है
पुलिंद भील की कथा विन्ध्याचल पर्वत की एक गुफा में किसी व्यंतर से अधिष्ठित महादेव की मूर्ति थी। उसकी पूजा करने के लिए पास के ही गाँव का मुग्ध नामक व्यक्ति रोजाना आया करता था। वह पहले उस स्थान की सफाई करता, फिर शुद्धजल से शिवमूर्ति का प्रक्षालन करता, तत्पश्चात् केसर, चंदन आदि सुगंधित द्रव्यों से उसकी पूजा करता था। उसके बाद पुष्पमाला चढ़ाकर धूप-दीप आदि यथाविधि करता था। फिर एक पैर से खड़ा होकर वह शिवजी की स्तुति, ध्यान आदि करके मध्याह्न के समय अपने घर लौटकर भोजन किया करता था। इस तरह का उसका नित्यक्रम था। एक दिन जब मुग्ध पूजा करने आया तो देखा कि किसी ने अपने द्वारा की गयी पूजा की सामग्री को हटाकर धतूरा कनेर आदि के फूलों से शिवमूर्ति की पूजा की है। यह देख उसने सोचा- "इस जंगल में ऐसा कौन व्यक्ति है, जो मेरी पूजा सामग्री हटाकर हमेशा शिवमूर्ति की पूजा करता है? आज छिपकर उसे देखना चाहिए।" अतः मुग्ध पुजारी वहीं एक ओर छिपकर बैठ गया। तीसरे पहर में एक कालाकलूटा व दाहिने हाथ में धनुष लिये तथा बांये हाथ में आक, धतूरा, कनेर वगैरह के फूल आदि पूजा का सामान लिये हुए वहाँ आया। उसके मुंह में पानी भरा हुआ था। वह पैरों में जूता पहने ही सीधे मूर्ति के पास पहुँचा और तुरंत मुंह में भरे हुए जल से मूर्ति के एक पैर का प्रक्षालन कर वहाँ आक, धतूरे आदि के फूल चढ़ा दिये। फिर उसने मूर्ति के पास मांस की एक पेशी रखी और इस प्रकार की भक्ति करके 'नमस्कार हो परमात्मा महादेव को' यों बोलकर शीघ्र ही वहाँ से निकलकर जाने लगा। तभी महादेव ने आवाज देकर उसे बुलाया और पूछा- "ऐ सेवक! आज तुझे इतनी देर कैसे हुई? तुझे भोजन तो आराम से मिलता
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