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विषय एवं मोह की भयंकरता
श्री उपदेश माला गाथा २११-२१५
जो सेवइ किं लहड़, थामं हारेड़ दुब्बलो होड़
पावेइ वेमणस्सं, दुक्खाणि य अत्तदोसेणं ॥ २११॥ शब्दार्थ - जो पुरुष कामभोगों का सेवन करता है, वह क्या पाता है? पाता क्या है? बल्की खोता है। उसे कभी तृप्ति नहीं होती उसके शरीर का बल क्षीण हो जाता है, वह वीर्यहीन हो जाता है, उसके चित्त में उद्वेग होता है। इसके कारण वैमनस्य भी पनपता है। और स्वच्छंद आचरण (आत्म- दोष) से क्षयरोग, प्रमेह आदि अनेक रोगों के दुःख भी वह पाता है ।।२११ ।।
जह कच्छुल्लो कच्छु, कंडूयमाणो दुहं मुणड़ सोक्खं ।
मोहाउरा मणुस्सा, तह कामदुहं सुहं बेंति ॥ २१२ ॥
शब्दार्थ - जैसे खुजली के रोग से पीड़ित मनुष्य अपने नखों से उस स्थान को बार-बार खुजलाने में दुःख को सुख मानता है; वैसे ही मोहमूढ़ मनुष्य विषय भोगों की विडंबना को सुख मानता है। कामांधजीव विषयसुख को ही सारभूत समझता है ।। २१२ ।।
विसयविसं हालहलं, विसयविसं उक्कडं पियंताणं । विसयविसाइन्नं पिव, विसयविसविसूइया होई ॥२१३॥
शब्दार्थ - ज्ञानी विवेकी महात्माओं ने विषय को हलाहल विष माना है। शब्दादिविषय रूपी विष से संयम रूपी जीवन का नाश हो जाता है विषय रूपी उग्रविष. पीने से जीव उसके भयंकर परिणाम से अनंतदुःख प्राप्त करता है । अत्यंत खोटे परिणामों से अनंतबार जन्मना और मरना पड़ता है। और अंत में उसका डेरा दुर्ग ही जाकर लगता है ।। २१३ ।।
एवं तु पंचहिं आसवेहिं, रइमाइणित्तु अणुसमयं ।
चउगइदुहपेरंतं, अणुपरियट्टंति संसारे ॥ २१४ ॥
शब्दार्थ - और इस तरह पांचों इन्द्रियों के विकारों से अथवा प्राणातिपातादि पाँच आश्रवों से युक्त जीव मलिनपरिणामों से प्रतिक्षण पापकर्म रूपी मल को ग्रहण करता है। इस कारण वह जीव नरक आदि चारगति के दुःख रूप इस संसारचक्र में मोहमूढ़ होकर परिभ्रमण करता है ।। २१४ ।।
सव्यगईपक्खंदे, काहंति अनंतए अकयपुण्णा ।
जे य न सुणंति धम्मं सोऊण य जे पमायंति ॥ २१५ ॥
शब्दार्थ - जिस मनुष्य ने पुण्य नहीं किया; दुर्गति में गिरते हुए प्राणी को धारण करके रखने वाले शुद्ध धर्म का श्रवण नहीं किया; अथवा धर्मश्रवण करने पर
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