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श्री उपदेश माला गाथा १६८-२०१ कितने शरीर, आहार, जल भोगा? छोड़ा है, उन सारे त्यक्त शरीरों के अनंतवें भाग से भी तीनों जगत् (चौदह राजलोक) संपूर्ण भर जाते हैं तो सारे शरीरों की गिनती का तो कहना ही क्या? फिर भी जीव को (जन्म-मरण के चक्कर से) संतोष नहीं होता ।।१९७।।
नह-दंतमंसकेसट्ठिएसु, जीवेण विप्पमुक्केसु । तेसु वि हविज्ज कइलास-मेरुगिरिसन्निभा कूडा ॥१९८॥ __ शब्दार्थ - पूर्वजन्मों में ग्रहण करके जीव के द्वारा छोड़े हुए नखों, दांतों, मांस, बालों और हड्डियों का हिसाब लगाये तो कैलाश (हिमवान) मेरु आदि अनेक पर्वतों के समान अनंत ढेर हो जाय; क्योंकि उनका भी कोई अंत नहीं है ।।१९८।।
हिमवंतमलयमंदरदीवोदहिधरणिसरिसरासीओ। __ अहिअयरो आहारो, छुहिएणाहारिओ होज्जा ॥१९९॥
शब्दार्थ - संसार-समुद्र में परिभ्रमण करते हुए इस जीव ने अब तक इतना आहार किया है कि उसका हिसाब लगाये तो हिमवान पर्वत, मलयाचल पर्वत, मेरुपर्वत, जम्बूद्वीप आदि असंख्यात द्वीप, लवण-समुद्र आदि असंख्य समुद्र और रत्नप्रभादि सात पृथ्वियों आदि कुल मिलाकर इनके समान बड़े-बड़े ढेर कर दें तो इनसे भी अधिक आहार भक्षण किया है। अर्थात् एक जीव ने अनंत पुद्गल-द्रव्यों का भक्षण किया है फिर भी उसकी क्षुधा शांत नहीं हुई ।।१९९।।
जं णेण जलं पीयं, घम्मायवज्जगडिएण तं पि इहं । सब्बेसु वि अगड-तलाय-नई-समुद्देसु न वि होज्जा ॥२०॥
शब्दार्थ - ग्रीष्म ऋतु की धूप से पीड़ित इस जीव ने इतना जल पीया है कि उसका हिसाब लगायें तो इतना जल सभी कुओं, तालाबों, गंगा आदि सभी नदियों
और लवणादि सारे समुद्रों में भी न हो। अर्थात् एक जीव ने आज तक जितना जल पिया है कि वह सर्व-जलाशयों के जल से भी अनंत गुना है ।।२०।। _____पीयं थणयच्छीरं, सागरसलिलाओ होज्ज बहुअयरं ।
संसारम्मि अणंते, माऊणं अन्नमन्नाणं ॥२०१॥
शब्दार्थ - इस जीव ने इस अनंत संसार में बचपन में भिन्न-भिन्न माताओं के स्तनों का दूध इतना पीया है कि जिसका हिसाब लगाया जाय तो समस्त समुद्रों के जल से भी अनंतगुना दूध हो जाय। मतलब यह है कि एक जीव ने अलग-अलग नये-नये शरीर धारण करके अलग-अलग माताओं का दूध सारे समुद्रों से अनंतगुना पीया है ।।२०१।।
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