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सत्यकि विद्याधर की कथा
__ श्री उपदेश माला गाथा १६३-१६४ सविडंकुन्भडरूवा, दिट्ठा मोहेइ जा मणं इत्थी ।
आयहियं चितंता, दूरयरेणं तं परिहरंति ॥१६३॥
शब्दार्थ - वेश्या, बड़ी उम्र की (प्रौढ़) कन्या, जिसका पति परदेश गया हुआ है, ऐसी महिला, बालविधवा, परिव्राजिका, कुलटा, नवयुवती, जिसका पति बूढ़ा हो ऐसी अंगना, उद्भट रूपवती (छैलछबीली), अनिन्द्य-सुंदरी और विकार रहित मनोहर रूप वाली तथा देखने मात्र से ही जो मन को मोहित कर देती हो; आत्महित का विचार करने वाले साधु ऐसी सभी प्रकार की स्त्रियों के संसर्ग से अत्यंत दूर रहते हैं ।।१६२-१६३।।
सम्मद्दिट्ठी वि कयागमो वि, अइविसयरागसुहवसओ । भवसंकडंमि पविसइ, एत्थं तुह सच्चई नायं ॥१६४॥
शब्दार्थ - 'सम्यग्दृष्टि और सिद्धांत को जानने वाला भी अत्यंत विषयसुख के राग के वश होकर भ्रवभ्रमण करता है। उस संबंध में हे शिष्य! तुम्हें सत्यकि का उदाहरण जानना चाहिए ।।१६४।।' यहाँ सत्यकि विद्याधर की कथा कहते हैं
सत्यकि विद्याधर की कथा विशाला नाम के समृद्ध नगर में चेटक नाम का राजा राज्य करता था। उसके सुज्येष्ठा और चिल्लणा नाम की दो पुत्रियाँ थीं। उन दोनों में परस्पर बहुत स्नेह था। अभयकुमार के कहने से उन दोनों ने श्रेणिक राजा के साथ विवाह करने का निश्चय किया। अतः अभयकुमार ने इस कार्य के लिए सुरंग खुदवाई और उस सुरंग द्वारा श्रेणिक राजा को विशालानगरी में ले आया। इधर दोनों कन्याएँ सुरंग के पास आयी, तब चिल्लणा ने विचार किया कि 'सुज्येष्ठा रूप में मुझसे अतिश्रेष्ठ है, इसीलिए श्रेणिक राजा उसका बहुत सम्मान करके पटरानी बना देगा' यह सोचकर चिल्लणा ने सुज्येष्ठा से कहा कि 'बहन! तूं वापस जाकर मेरा आभूषणों का डब्बा ले आ, जो वहीं रह गया है।' ऐसा कहकर सुज्येष्ठा को वापस भेजा। फिर चिल्लणा ने श्रेणिक राजा से कहा कि 'स्वामीनाथ! यहाँ से जल्दी चलिए यदि किसी ने जान लिया तो बड़ा अनर्थ होगा। इस प्रकार भय बताकर वे सुरंग से बाहर निकल गये। उसके बाद सुज्येष्ठा ने वहाँ आकर विचार किया कि प्राण से भी अधिक प्रिय मेरी बहन चिल्लणा ने मेरे साथ ऐसा धोखा किया है। केवल अपने स्वार्थ में दत्तचित्त रहने वाले कुटुम्बीवर्ग से क्या मतलब? सर्पफणा के समान इस विषयसुख को भी धिक्कार है।' ऐसे विचार करते-करते उसे वैराग्य हो गया। फलतः सुज्येष्ठा ने विवाह नहीं किया। उसने श्री चन्दनबाला 270