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________________ श्री उपदेश माला गाथा १५० स्वजन भी अनर्थकर पुत्र कोणिक राजा की कथा इसके बाद उसने अपनी माता से पूछा- "माँ, इस पुत्र के प्रति मुझे बहुत प्यार उमड़ता है, इसका क्या कारण है?'' तब माता ने कोणिक से कहा-'अरे क्रूरमते! इस बच्चे पर तेरा क्या प्यार है, तेरे पिता का तुझ पर इससे कई गुना अधिक स्नेह था।'' यह कहकर माता ने कोणिक को उसके बचपन की सारी घटना आद्योपांत सुनाई। उसे सुनकर पिता के साथ अपने निर्दय व्यवहार के प्रति कोणिक को मन में बड़ा खेद हुआ। वह अपने इस निन्दित कर्म के लिए अपने आप को कोसने व पश्चात्ताप करने लगा। सहसा कोणिक के दिमाग में पिताजी को बंधनमुक्त करके उनसे क्षमा मांगने की सूझी। वह कुल्हाड़ी लेकर जेलखाने की ओर भागा। श्रेणिक राजा ने जब कोणिक को इस प्रकार अपनी ओर आते देखा तो उनके मन में विचार आया कि न मालूम, यह दुष्ट किस कुमौत से मुझे मारेगा।" अतः उन्होंने उसके अपने पास आने से पहले ही स्वयं तालपुटविष खाकर अपना काम तमाम कर लिया। नरक का आयुष्य सम्यक्त्वप्राप्ति से पहले बंधा होने के कारण वे पहली नरक में गये। कोणिक पिता को मरा देखकर हक्काबक्का रह गया। वह फूट-फूटकर जोर जोर से रोने लगा। परंतु अब क्या हो सकता था? सबने उसे समझा-बुझाकर शांत किया। कोणिक ने पिता की अन्त्येष्टिक्रिया की। मुख्यमंत्रियों ने विविध उपायों से कोणिक को सांत्वना व शांति देकर शोक दूर किया। ____ कोणिक राजा ने एक बार अपनी पद्मावती के द्वारा उत्तेजित होकर हल्ल-विहल्लकुमारों से उक्त तीन दिव्य वस्तुओं-कुण्डल, हार और हाथी की मांग की। जब उन्होंने देने से इन्कार किया तो कोणिक ने धमकाया। फलस्वरूप हल्ल-विहल्लकुमार उन तीनों चीजों तथा अन्य बहुमूल्य चीजों को लेकर अपने मातामह (नाना) चेड़ा राजा के पास पहुँचे। चेड़ा राजा ने सारी वस्तुस्थिति समझकर अभिमानी और उद्धत कोणिक को समझाने का प्रयत्न किया; किन्तु वह किसी तरह न माना; उल्टे अपने नाना के साथ युद्ध करने को तैयार हो गया। युद्ध में करोड़ों आदमी मारे गये। इस महापाप के कारण कोणिक आयुष्य पूर्ण करके नरक में पहुंचा। इस तरह पुत्रस्नेह भी मिथ्या है; यही इस कथा का मुख्य उपदेश है।।१४९।। लुद्धा सज्जतुरिआ, सुहिणो वि विसंवयंति कयकज्जा । ___जह चंदगुत्तगुरुणा, पव्ययओ घाइओ राया ॥१५०॥ शब्दार्थ - जो व्यक्ति राज्य आदि में लुब्ध होते हैं, वे अपना कार्य सिद्ध - 251
SR No.002364
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages444
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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