SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 192
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्री उपदेश माला गाथा ७१-७४ कुशिष्य एवं सुशिष्य स्वरूप स्वर्ग की देवसभा में भी शुभ स्थान नहीं मिलता, तो फिर मोक्षगति का कहना ही क्या? वह किल्बिष-जाति के नीच देवों में उत्पन्न होता है; इसीलिए उसे देवसभा में बैठने का अधिकार नहीं मिलता। मनुष्यों में जैसे चांडाल, चमार आदि हीन गिने जाते हैं, वैसे देवों में भी किल्विष देव निम्न जाति के गिने गये हैं ॥७०॥ जइ ता, जणसंयवहारयज्जियमज्जमायरइ अन्नो । जो तं पुणो विकत्थइ, परस्स बसणेण सो दुहिओ ॥७१॥ शब्दार्थ- यदि कोई जीव लोकव्यवहार में वर्जित चौर्यादि अकार्य करता है तो वह अनाचार-सेवन से स्वयं दुःखी होता है और जो पुरुष उस पापकर्म को अन्य लोगों के समक्ष बढ़ा-चढ़ाकर कहता है, वह दूसरे के व्यसन (आदत) से दुःखी होता है ।।७१।। अर्थात् - मनुष्य परनिंदा करने से निरर्थक पाप का भाजन होता है। अतः परनिन्दा त्याज्य है। सुट्ठवि उज्जममाणं पंचेव, करिति रित्तयं समणं । अप्पथुई परनिंदा, जिम्भोवत्था कसाया य ॥७२॥ शब्दार्थ - तप, संयम आदि धर्माचरण में भलीभांति पुरुषार्थ करने वाले साधु को ये पाँच दोष गुणों से खाली कर देते हैं-१. आत्मस्तुति, २. परनिन्दा, ३.. जीभ पर असंयम, ४. जननेन्द्रिय पर असंयम और ५. कषाय।।७२।। भावार्थ - तप, जप, संयम आदि धर्माचरण संबंधी दुष्कर करणी करने वाले मुनिराज को भी ये पाँच दोष गुणरहित कर देते हैं-१. अपने मुख से अपनी प्रशंसा, २. दूसरे की निन्दा, ३. रसनेन्द्रिय की लोलुपता, ४. कामराग की अभिलाषा और ५. क्रोध, मान, माया और लोभरूप कषाय का सेवन। इन पाँचों का त्याग करने से ही जीव सुखी हो सकता है ।।७२।।। पपरियायमईओ, दूसइ वयणेहिं जेहिं जेहिं परं । । ते ते पावइ दोसे, परपरिवाई इय अपिच्छो ॥७३॥ शब्दार्थ - दूसरों की निन्दा करने की बुद्धिवाला पुरुष जिन-जिन वचनों से पराये दोष प्रकट करता है, उन-उन दोषों को स्वयं में भी धीरे-धीरे प्रवेश कराता जाता है। ऐसा पुरुष वास्तव में अदर्शनीय है। अर्थात् परनिन्दाकारी पापी का मुख भी देखने योग्य नहीं है ।।७३।। __ थद्धा च्छिद्दप्पेही, अवण्णवाई सयंमई चवला । वंका कोहणसीला, सीसा उव्वेअगा गुरुणो ॥७४॥ - --------- 165 165
SR No.002364
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages444
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy