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________________ श्री उपदेश माला गाथा ६१ सिंहवासी मुनि का दृष्टांत अर्थात् - इस भूमंडल पर मदोन्मत्त हाथियों के कुम्भस्थल का विदारण करने में बड़े-बड़े शूरवीर व्यक्ति नजर आते हैं; कई प्रचण्ड केसरीसिंह को मारने में दक्ष मनुष्य भी देखे हैं। किन्तु मैं उन बलवानों के सामने दावे के साथ कह सकता हूँ कि कामदेव के दर्प को चूर करने में कुशल व्यक्ति विरले ही हैं ॥८१।। उपकेशा के रूप-लावण्य को देखते ही सिंहगुफावासी मुनि एकदम कामातुर होकर उससे कामवासना तृप्त करने की प्रार्थना करने लगे। कुशल उपकोशा ने कहा- "महानुभाव! हम निर्धनों से प्रीति नहीं करती। पहले आप हमें संतुष्ट करने के लिए धन ले आइएं। धन मिलने पर ही हम आपका मनोरथ पूर्ण करेंगी।" यह सुनकर मुनि जरा विचार में पड़ गये कि "धन कहाँ से लाऊं?" सोचते-सोचते मुनि को सूझा कि उत्तर दिशा में नेपाल देश का राजा नवागंतुक मुनि को लक्षस्वर्णमुद्रा की कीमत की रत्नकम्बल देता है। इसीलिए वहाँ जाकर पहले रत्नकम्बल ले आऊं। इतनी कीमती रत्नकम्बल पाकर तो यह अपने साथ मनमाना विषयभोग सेवन करने ही देगी।'' ऐसा निश्चय करके कामुक मुनि वर्षाकाल में ही घनघोर वर्षा होने के बावजूद भी रत्नकम्बल पाने की धुन में नेपाल देश की ओर चल पड़ा। अनेक जीवों को कुचलते-दबाते व हिंसा करते हुए तथा अनेक कष्ट सहते हुए कई दिनों में वह मुनि नेपाल पहुँचा। वहाँ के राजा को आशीर्वचन कहकर उसने रत्नकम्बल की याचना की। राजा ने उसे रत्नकम्बल दे दिया। उस रत्नकम्बल को लेकर वह वहाँ से लौट रहा था कि रास्ते में उसे चोरों ने घेर कर लूँट लिया। फलतः निराश होकर वह पुनः नेपाल पहुँचा और राजा को सारी आपबीती सुनाकर रत्नकम्बल देने की याचना की। राजा ने उदारता करके दूसरी बार उसे रत्नकम्बल दे दिया। इस बार उसने रत्नकम्बल को एक पोले बांस में डाला और लेकर चल पड़ा। रास्ते में चोरपल्ली पड़ती थी। वहाँ के चोरों ने शकुनि पक्षी (तोता) पाल रखा था; उसने चोरों को मुनि के पास बहुमूल्य रत्नकम्बल होने का पता बता दिया। फलतः चोरों ने साधु को घेर लिया और कहा-"तुम्हारे पास एक लाख स्वर्णमुद्राओं का रत्नकम्बल है, बताओ वह कहाँ है?'' पहले तो साधु ने झूठ बोला कि 'मेरे पास कुछ नहीं है। लेकिन जब चोरों ने उसे धमकाया कि सच-सच बताओ, हमारा यह तोता कभी असत्य नहीं बोलता। सच बताओगे तो हम तुम्हें छोड़ देंगे। अन्यथा, तुम्हारी खैर नहीं है।'' साधु ने गिड़गिड़ा कर सचसच बता दिया। चोरों ने साधु समझकर उस पर दया करके छोड़ दिया। वहाँ से 159
SR No.002364
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages444
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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