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________________ श्री उपदेश माला गाथा ५६ श्री स्थुलभद्र मुनि की कथा है, बीच-बीच में विनोद पूर्वक व्यंग भी कर देती है, नेत्र और मुख द्वारा विरहदुःख भी व्यक्त करती है, वीणा और मृदंग के मधुर शब्दों के साथ नृत्य, नाट्य संगीत आदि विविध मनोरंजन के कार्यक्रम प्रतिदिन प्रस्तुत करती है; वर्षाऋतु है, (मगध देश की) वारांगना की चित्रशाला है, बारह वर्ष की परिचित प्रेमिका है, भरपूर रूप, लावण्य और यौवन के उन्माद में मदमाती कोशावेश्या बार-बार उनसे भोगविलास की प्रार्थना करती है। इतने पर भी वैराग्य रस निमग्न स्थूलभद्र नहीं पिघले तो स्पष्ट शब्दों में प्रार्थना करती है-"प्राणनाथ! जरा मेरी ओर तो देखो! यह शरीर आपके चरणों में समर्पित है, फिर भी आप इस दासी के कुचस्पर्श और आलिंगन आदि प्रणयरस का सुख छोड़कर क्यों वैराग्य और तप की भट्टी में अपने यौवन को झौंककर कष्ट पा रहे हो।" प्रणयरसज्ञों का कहना है संदष्टेऽधरपल्लवे सचकितं हस्ताग्रमाधुन्वती । मा मा मुञ्च शठेति कोपवचनैरानर्तितधूलता। सीत्काराञ्चितलोचना सरभसं यैश्चुम्बिता मानिनी । प्राप्तं तैरमृतं श्रमाय मथितो मूढैः सुरैः सागरः ॥६७।। ' अर्थात् - यौवन में उन्मत्त वनिता के ओष्ठपल्लवों को दांतों से काटे जाने पर वह चकित होकर हाथ के अग्रभाग को हिलाती है, 'अरे, शठ! ऐसा मत करो, मत करो, छोड़ो, इस प्रकार के कोपमय वचन कहती हुई भौंहोंरूपी लताओं को नचाती है, साथ ही मुंह से सी-सी करती हुई आँखों को मटकाती रहती है, ऐसी मानिनी का झपटकर जिन लोगों ने चुम्बन किया है, वास्तव में उन्हीं पुरुषों ने अमृत प्राप्त किया है; बाकी तो मूढ़ देवों ने अमृत के लिए जो सागरमंथन किया था, उसमें अमृत क्या मिला? श्रम ही उनके पल्ले पड़ा था' ॥६७।। . इसीलिए हे प्रियतम! यह वैराग्यरस की तान छेड़ने का समय नहीं है, इस समय तो आप मेरे साथ यथेच्छ कामसुखों का उपभोगकर प्रणयरस का स्वाद लें और दुर्लभ मनुष्य जन्म को सार्थक कर लें। फिर कब मनुष्यजन्म और दुर्लभ यौवन मिलेगा। वृद्धावस्था में यह कष्टकर तप, जप या संयम अपनाना उचित है। स्थूलभद्र कोशा की इन कामवर्द्धक बातों से जरा भी विचलित नहीं हुए। उन्होंने कोशा को समझाया-"भद्रे! मैं अब तक अज्ञानदशा में था, किन्तु अब गुरुकृपा से मुझे इस शरीर और विषय सुखों के वास्तविक स्वरूप का भान हो गया है। अब मैं इनके जाल में नहीं फंस सकता। कौन मूढ़ ऐसा होगा, जो जानबूझकर अपवित्र और मलमूत्र के भाजन घृणित कामिनीशरीर का आलिंगन करना चाहेगा? देखो, स्त्री के शरीर का स्वरूप - 151
SR No.002364
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages444
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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